________________
• दुःख का भोग समता से करे ।
स्व- दुःख के निवारण की तीव्र इच्छा और उसके लिए 'हाय ! हाय!' करना भी प्रार्त्तध्यान ही है ।
दुःख में समता धारण करने से आत्मा दुःख के भार से हल्की बन जाती है और नवीन कर्मबंध से भी बच जाती है ।
जब भयंकर असाता वेदनीय कर्म का तीव्र उदय होता है, तब शरीर में भयंकर वेदना प्रकट होती है - असहनीय वेदना में मृत्यु की इच्छा भी हो जाती है ।
प्रिय मुमुक्षु !
तुमने श्रावक - जीवन का अभ्यास किया है । तुम जानते हो कि दुःख में मृत्यु की इच्छा करने से सल्लेखना व्रत में प्रतिचार / दोष लगता है ।
'मृत्यु' कोई दुःख - मुक्ति का उपाय नहीं है ।
असातावेदनीय कर्म का ही यदि तीव्र जोर हो तो व्यक्ति मरकर भी ऐसी ही योनि / गति में पैदा होता है जहाँ वर्तमान अवस्था से भी अधिक दुख होता है ।
आगामी जन्म कहाँ लेना- क्या यह अपने हाथ की बात है ?
यदि अपनी इच्छानुसार ही परलोक का निर्णय हो जाता हो...तब तो हर व्यक्ति चक्रवर्ती के घर ही पैदा होता दुनिया में एक भी व्यक्ति दुःखी दिखाई नहीं देता ।
मृत्यु की मंगल यात्रा - 60
....