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- अन्तरंग निमित्त कर्म हैं और बाह्य निमित्त सुख-दुःख उत्पादक बाह्य पदार्थ हैं।
'उपादान' के बिना 'निमित्त' पंगु ही है। कर्म-बन्धन में 'प्रात्मा' उपादान कारण है और 'राग-द्वेष' के अध्यवसाय निमित्त कारण हैं।
आत्मा राग-द्वेष के अशुभ/अशुद्ध अध्यवसाय के द्वारा कर्म का बंध करती है और वह अशुभ-कर्म जब उदय में आता है, तब आत्मा दुःख का अनुभव करती है । ... इससे स्पष्ट होता है कि जीवन में जो कुछ भी दुःख पाता है उसका मूल/वास्तविक कारण 'राग और द्वेष' ही है।
अनुकूलता मिलने पर प्रसन्न होना/खुश होना-राग है ।
प्रतिकूलता मिलने पर नाराज होना/नाखुश होना-द्वष है।
इच्छा, मूर्छा, काम, स्नेह, गृद्धि, ममत्व तथा आसक्ति आदि राग के ही पर्याय हैं।
ईर्ष्या, रोष, मत्सर, निन्दा, वैर, असूया आदि द्वेष के ही पर्याय हैं ।
माया और लोभ कषाय रागस्वरूप हैं। क्रोध और मान कषाय द्वेष स्वरूप हैं।
कर्म के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली अनुकूलताओं में प्रसन्न होने से राग करने से कर्म का बंध होता है ।
मृत्यु की मंगल यात्रा-58