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शील
जगत् के समस्त भावों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष देखती हैं दूसरी ओर अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख की स्वामी होने पर भी स्व-स्वभाव की अज्ञानता / मोह के कारण आत्मा दुनिया के क्षणिक भोग सुखों में प्रासक्त बनती है, जिसके परिणामस्वरूप वह नये-नये कर्मों का बन्ध करती है और वे कर्म जब उदय में आते हैं, तब नाना प्रकार के भयंकर दुःख सहन करती है ।
जरा, शास्त्र चक्षु से दृष्टिपात करें नरक के जीवों पर । 'ओहो ! कैसी भयंकर यातनाएँ ये सहन कर रहे हैं ? परमाधामी देव इन नारक जीवों को सतत दुःख पहुँचा रहे हैं । तलवार जैसे तीक्ष्ण हथियारों से उन्हें चीर रहे हैं भयंकर अग्नि में डाल रहे हैं. अत्यन्त दुर्गन्धमय वैतरणी नदी में डुबो रहे हैं ।'
नरक में क्षेत्रकृत वेदना भी कोई कम नहीं है । ज्येष्ठ मास की भयंकर गर्मी से भी अनन्तगुरणी गर्मी नरक का जीव सहन करता है। भूख और प्यास से वे सतत संतप्त रहते हैं । अधिकांश जीव श्रार्त्त व रौद्र ध्यान में समय व्यतीत करते हैं । अपने विभंगज्ञान का उपयोग भी अपने पूर्व भव के शत्रुओं की पहिचान में ही करते हैं और उन शत्रुओं को पहिचान कर विक्रिया करके एक-दूसरे को दुःख देते रहते हैं । मनुष्यलोक की अपेक्षा नरक में अनन्तगुणी वेदना है ।
प्रिय मुमुक्षु !
कदाचित् कोई देव हमें उठाकर नरक के जीवों की पीड़ा के साक्षात् दर्शन करा दे तो सम्भव है, उस दृश्य को देखते ही हम बेहोश हो जावें ।
मृत्यु की मंगल यात्रा - 66