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भभक उठी है। मदनरेखा ने अपने स्वामी की इस स्थिति को देखा उसके दिल को बड़ा आघात लगा.. परन्तु उसने अपने तात्कालिक कर्तव्य का विचार किया और जोर से रुदन करने के बजाय पति के देह को अपनी गोद में लेकर बैठ गई। 'क्रोध के आवेश में रहकर मेरे स्वामी की दुर्गति न हो जाय, अत: मुझे इनकी आत्म-समाधि के लिए प्रयत्न करना चाहिये' इस प्रकार विचार कर मदनरेखा ने अपने स्वामी को समझाया, 'स्वामिन् ! आप शान्त बनें। धैर्य रखें! आपके दिल में ज्येष्ठ बन्धु मणिरथ के प्रति रोष है परन्तु क्रोध करना उचित नहीं है मरिणरथ तो निमित्त मात्र है, जीवन में जिस किसी भी सुख-दुःख को प्राप्ति होती है, उसमें मुख्य कारण तो अपनी आत्मा स्वयं ही है। शुभ कर्म के उदय से सुख और अशुभ कर्म के उदय से दुःख मिलता है। अपने अशुभकर्म का उदय है, अतः मरिणरथ पर रोष करना उचित नहीं है वह तो बेचारा निमित्त मात्र है । वह तो वासनाओं का गुलाम है.. उसको यह पाप कराने वाला काम और क्रोध है। काम-क्रोध के आधीन बनी आत्मा तो दया को पात्र है। अतः स्वामिन ! पाप क्रोध का त्याग करदें।'
महासती मदनरेखा की वात्सल्यपूर्ण प्रेरणा प्राप्त कर युगबाहु शान्त हो जाता है। क्रोध का आवेश धीरे-धीरे दूर होने लगता है।
मदनरेखा कहती है--'स्वामिन् ! दुनिया में जो भी जन्म लेता है, उसे एक दिन अवश्य मरना ही पड़ता है. जन्म के बाद मृत्यु अवश्यंभावी है। जो घटना अवश्य बनने वाली है, उसे कसे रोका जा सकता है ? और जो घटना रुकने वाली नहीं है उसके पोछे शोक और सन्ताप करना व्यर्थ ही है। आप तो
मृत्यु की मंगल यात्रा-40