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गुरुदेवश्री की उपकार-स्मृति के साथ ही पूज्य उमास्वातिजी का वचन याद आ जाता है
दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ, स्वामीगुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र, च स दुष्करतरप्रतिकारः ।।
लौकिक उपकारी ऐसे माता-पिता, स्वामी और विद्यागुरु का उपकार दुष्प्रतिकार है और उसमें भी संसारतारक धर्मगुरु का उपकार तो अत्यन्त ही दुष्प्रतिकार है।
माता-पिता देह के पालक और पोषक हैं, जबकि धर्म-दाता गुरु आत्मा के पालक और प्रात्मगुणों के पोषक हैं ।
आज से नौ वर्ष पूर्व कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्यजी म. से पावन बनो पाटण भूमि में पूज्यपाद गुरुदेवश्री ने भौतिक देह का त्याग किया है।
मृत्यु के पूर्व उनके मुख-वदन पर प्रसन्नता थी.. आँखों में करुणा और समता थी। पाक्षिक-प्रतिक्रमण की प्रत्येक क्रिया अत्यन्त जागृतिपूर्वक वे कर रहे थे. देह जर्जरित हो चुका था परन्तु उनका मनोबल अत्यन्त दृढ़ था।
पाक्षिक प्रतिक्रमण की परम पवित्र क्रिया के द्वारा जगत् के जीवों के साथ क्षमायाचना करने के बाद नमस्कार-महामंत्र के ध्यान और श्रवण में वे लोन हो चुके थे...और ठीक आठ बजकर दस मिनिट पर उन्होंने अपने नश्वर देह का सदा के लिए त्याग कर दिया।
महान् आत्माएँ मृत्यु से घबराती नहीं हैं। वे तो प्रसन्नता
मृत्यु की मंगल यात्रा-45