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जलाती है, परन्तु उस भयंकर वेदना में रखी गई समता के बल से वे अपने समस्त कर्मों को भस्मीभूत कर देते हैं और अनादिकाल से आत्मा में घर कर गए तैजस और कार्मरण शरीर को भस्मीभूत कर अजरामर पद को प्राप्त कर लेते हैं ।
देह के विनाश से गजसुकुमाल मुनि भयभीत नहीं बने । क्यों ? क्योंकि देहभिन्न प्रात्मा के यथार्थ स्वरूप के वे ज्ञाता थे। उनके मन में आत्मा मूल्यवान वस्तु थी और देह तुच्छ थी। ___ • याद करें-अरिणकापुत्र प्राचार्य को । गंगा नदी पार करते समय पूर्व भव की दुष्ट देवी ने उन्हें भाले से बींध दिया था। उनके देह से खून की धारा बह रही थी फिर भी उन्हें अपने देह की कोई चिन्ता नहीं थी. वे सोच रहे थे "पोहो ! मेरे शरीर से निस्सृत रक्त की बूदों से पानी के उन जीवों को कितनी पीड़ा होती होगी?"
स्व देह की पीड़ा का उन्हें विचार भी नहीं था और अपकाय के जीवों के रक्षण के लिए वे चिंतातुर थे। धोरे-धीरे वे क्षपक-श्रेणी पर आरोहित हुए और क्षण भर में तो समस्त कर्मों का क्षयकर शाश्वत-पद के भोक्ता बन गए।
मौत उन्हें भयभीत न कर सकी। क्यों ? क्योंकि उन्हें स्पष्ट बोध था कि इस भाले से मेरा देह तो नष्ट हो सकता है.... परन्तु यह भाला मेरे एक भी आत्मप्रदेश को बेधने में समर्थ नहीं है। ___ मौत के प्रसंग में भी उनके मुख पर प्रसन्नता थी.. मरणान्त कष्ट को भी उन्होंने समता भाव से स्वीकार किया था।
मृत्यु की मंगल यात्रा-38