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बस ! हाथ में नंगी तलवार लेकर रोष से धमधमाता हुआ श्रानन्दकुमार कारावास में आ पहुँचा और बोला- 'आहार ग्रहरण करो''अन्यथा यह नंगी तलवार तुम्हारा शिरोच्छेद कर देगी ।'
शायद तूने 'समरादित्य-चरित्र' पढ़ा या सुना होगा ? न पढ़ा हो तो अवश्य पढ़ लेना । भव- विरक्ति को जगाने वाला यह एक अनमोल ग्रंथ है ।
आनन्दकुमार के मुख से इस प्रकार के कठोर वचन सुनकर भी सिंह महात्मा भयभीत नहीं हुए । वे अत्यन्त मधुर स्वरों में बोले – 'नाऽहं मृत्यो बिभेमि' मुझे मृत्यु का भय नहीं है । वे निर्भय थे... मौत उनके सामने खड़ी थी... किन्तु मौत का उन्हें कोई भय नहीं था । क्योंकि उन्होंने जीवन के यथार्थ स्वरूप को जान/समझ लिया था ।
"मैं आत्मा हूँ, अजर हूँ - अमर हूँ ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि मेरे गुण हैं अग्नि मुझे जला नहीं सकती है पानी मुझे गला नहीं सकता है पवन मुझे उड़ा नहीं सकता है । शस्त्र के प्रहार से मैं खण्डित होने वाला नहीं हूँ । शस्त्र से देह का छेद हो सकता है, आत्मा का नहीं । अग्नि से शरीर जल सकता है, आत्मा नहीं । पानी से देह नष्ट हो सकता है आत्मा नहीं । देह विनाशी है.... मैं अविनाशी हूँ । आत्मा के लिए शरण्यभूत जिनधर्म है और उस धर्म की मुझे प्राप्ति हो गई है अतः मुझे किस बात का भय ? जिन धर्म ने मुझे निर्भय बना दिया है ।" बस ! इस प्रकार की दृढ़ श्रद्धा और विश्वास के बल पर ही सिंह राजा बोल उठे - 'मुझे मृत्यु का कोई भय नहीं है ।'
• देवकीनन्दन गजसुकुमाल मुनि नगर के बाहर श्मशान भूमि मृत्यु की मंगल यात्रा - 36