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इस समग्र लोकाकाश में बाल के अग्र-भाग जितना भी स्थान ऐसा नहीं है कि जिसका स्पर्श स्वकर्म के उदय से नाना रूपों द्वारा हमारी आत्मा ने नहीं किया हो !
इससे सिद्ध होता है कि हमारी आत्मा ने चौदह राजलोक स्वरूप जगत् के सभी आकाश-प्रदेशों का स्पर्श कर जन्म और मृत्यु को प्राप्त किया है।
मृत्यु की अनिवार्यता को समझाने वाली एक घटना याद पा रही है
• एक बार महात्मा बुद्ध किसी वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। तभी एक बुढ़िया अत्यन्त करुण रुदन करती हुई उनके निकट आई.... उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह रही थी। उसके हृदय में अत्यन्त वेदना थी।
महात्मा बुद्ध ने आश्वासन देते हुए कहा "भगिनी ! इतने जोर से रुदन क्यों कर रही हो?"
उस स्त्री ने रोते हुए कहा, "कृपासिन्धु ! आप करुणा के अवतार हो । हे कृपालु ! मेरे जीवन का आधार इकलौता पुत्र कुछ भी बोलता नहीं है... खाता नहीं है. पीता नहीं है. उसके श्वास की गति बन्द हो गई है. शरीर में किसी प्रकार की हलनचलन नहीं है। मेरे जीवन का वही एक मात्र आधार है, अतः प्राप कृपा करके उसे ठीक कर दीजिए।"
बुढ़िया का इकलौता पुत्र मर चुका था और वह उसको पुनः जीवित कराना चाहती थी।
मृत्यु-2
मृत्यु की मंगल यात्रा-17