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सांसारिक संयोग की चिन्ता श्रार्त्तध्यान है । भौतिक संयोग वियोग की चिन्ता करना श्रार्त्तध्यान है ।
उदाहरण - " कब मुझे ऐसे मकान की प्राप्ति होगी ?" यह 'संयोग - चिन्ता' रूप आर्त्तध्यान है ।
" मेरी वस्तु कोई उठा तो नहीं ले जाएगा न ?” यह संयोग के वियोग की चिन्ता - रूप प्रार्त्तध्यान है ।
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प्रतिकूल संयोग के वियोग की चिन्ता करना भी प्रार्त्तध्यान है । जैसे यह धूप कब जायगी ? यह गर्म पवन कब बंद होगा ?
जीवन में धर्म की परिणति के लिए सतत आत्म- जागृति की आवश्यकता है । यदि सतत श्रात्म जागृति न हो तो कब हमारी आत्मा आर्त्तध्यान के वशीभूत हो जायगी, कुछ कह नहीं सकते ।
सांसारिक सुख के राग और दुःख के द्वेष से आत्मा आर्त्तध्यान के अधीन बन जाती है और व्यर्थ ही कर्म बंध करती है ।
मुमुक्षु दीपक !
तूने योग- शास्त्र का चौथा प्रकाश देखा / पढ़ा होगा ?
कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य जी भगवन्त ने 'योगशास्त्र' के चौथे प्रकाश में 'संसार भावना' का वर्णन करते हुए लिखा हैसमग्रलोकाकाशेऽपि, नानारूपैः स्वकर्मतः । बालाग्रमपि तन्नास्ति, यन्न स्पृष्टं शरीरिभीः ।
मृत्यु की मंगल यात्रा - 16