________________
हैं कि इस संसार में आत्मा अकेली जन्म धारण करती है और मौत को प्राप्त करती है और अकेली ही कर्म का बंध करती है और अकेली ही कर्म के फल का भोग करती है।
इस संसार में प्रात्मा में जो कुछ विषमता दिखाई दे रही है "वह सब कर्म की पराधीनता/परवशता के कारण ही है।
आत्मा की कर्मकृत विषमता का वर्णन करने के बाद पू. उपाध्यायजी म. फरमाते हैं
रुचिरसमतामृतरसं क्षरणमुदितमास्वादय मुदा ।
अत्यन्त मनोहर उदित समता अमृत के रस का प्रसन्नतापूर्वक प्रास्वादन कर।
..."इसी प्रकार 'अन्यत्व भावना' के अन्तर्गत आत्मा से भिन्न पर/पोद्गलिक पदार्थ का वर्णन करते हुए फरमाते हैं कि दुनिया के सभी पदार्थ प्रात्मा से भिन्न हैं। इस सनातन सत्य की अज्ञानता के कारण आत्मा पौद्गलिक पदार्थ में आत्म-बुद्धिममत्व-बुद्धि करके व्यर्थ ही कर्म-बंध करती है।
शरीर, धन, पुत्र, स्वजन तथा महल आदि सभी तुझसे भिन्न हैं...जिस शरीर को अपना मानकर सतत उसके रक्षण, संरक्षण और पोषण में तू प्रयत्नशील है. वह शरीर भी तेरा कहाँ है ?
पौद्गलिक पदार्थ की ममता ही परिताप और सन्ताप का कारण है। जगत् के समस्त पदार्थों का संग/परिचय एक मात्र दुःख का ही जनक है। जगत् का कोई भी भौतिक पदार्थ प्रात्मा के लिए सहायक नहीं बन सकता है ।
मृत्यु की मंगल यात्रा-11