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वाचकोंके विनोद एवं आनंदके लिये एक काव्य यहां पर उवृत किया जाता है।
प्रक्षाल्याक्षतशीतरश्मिसुधया गोशीर्षगाढवैलिप्त्वाऽभ्यर्च्य च सारसौरभ सुरनत्य प्रसूनैः सदा । त्वत्पादौ यदि वाहयामि शिरसा त्वत्कर्तृकोपक्रियामाग्भारात्तदपि श्रयामि भगवन्नापर्णतां कर्हिचित् ॥१॥
. भावार्थ-हे भगवन् ! यदि मैं पूर्णमासीके अखंड चंद्रसे निकली सुधा-अमृतसे आपके चरणोंको प्रक्षा. लन करूं, गोशीर्ष नामा उत्तम बावना चंदनसे विलेपन करूं, उत्तम सुगंधवाले कल्पवृक्षके पुष्पोंसे पूजन करूं, इस प्रकार प्रक्षालित-विलिम्पित-पूजित आपके उत्तम चरणोंको सदा अपने मस्तकोपरि उठाये फिरूं, अर्थात् आप उपकारीको मैं सदा अपने शिर पर लिये फिरूं, तो भी हे गुरु देव ! आपके ऋणसे कबी भी किसी प्रकार भी मैं अनृण नहीं हो सकता हूं!"
- सत्य है ! सचे गुरु भक्तोंके गुरुओंपति ऐसे हीहार्दिक भाव प्रकट होते हैं ! । फैजी नामा शायर फारसीके कविने भी एक स्थान पर ऐसा ही भाव प्रकट करते हुए गुरुकृपाके संबंधमें लिखा है। पहाए रव्वेश मेदानम् , बनो मे जो नमे अर्जद ।