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A SA SA SA SA SAI SIS. S. S. S. श्रीमान् मुनिश्री हंसवीजयजी महाराज.
जन्म. १९१४ ना
दिवासाका दिन.
SURYA PRAKASH P. PRESS AHMEDABAD.
दीक्षा १९३५
महा वदी ११
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श्री हंसविजयजी जैन फ्रीलायब्रेरी ग्रंथमाला पुष्प ११ वां
मांडवगढकामन्त्री
अथवा
पेथडकुमारकापरिचय
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. संयोजकः - -- न्यायांभोनिधि जैनाचार्य श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरशिष्य
पंडित वर्य श्री लक्ष्मीविजयजीमहाराजके शिष्य ____श्रीमान् हंसविजयजी महाराज.
संस्कारकः वकील झमकलालजी रातडीया.
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प्रकाशकः
श्री हंसविजयजी जैन फ्री लायब्रेरी बडौदा. प्रथमावृत्ति । वीर संवत । विक्रम सं. १९७९ ३: प्रत १०..। २४४९ । मूल्य ४ आने
अमदावाद धी फीनीक्ष प्रिन्टिंग वर्क्समां
शा. मोहनलाल चीमनलाले छाप्युं.
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आभार.
इस पुस्तकके प्रसिद्ध करनेमें जिन समि भाईयोंने 8 8 अपना पुण्योपार्जित लक्ष्म.का सदुपयोग किया है उनका Y उपकार माने बिना हम नहीं रह सकते. अमरावती नि-Y वासी श्रीयुत फतेचन्दजी फलोधिया, कि जिन्होंने अम-के रावतीमें श्री जिन मन्दिर बनवाकर बडे समारोहके साथ प्रतिष्टा महोत्सव किया, और वहांपर यात्रालु लोगोंके लिए
एक धर्मशाला बनवाई है और उद्यापन करके अपना Y जीवन सफल किया और कररहे हैं उन श्रीमान्की धर्मपनि । से श्रीमती अमृतबाईने २५०) रुपये दिये हैं तथा जयसिंह
भाई उगरचन्द दलाल अमदाबादवाले जिन्होंने उद्यापनादि
में अच्छा धन खर्च किया और कर रहे हैं उन्होंने २०१) ॐ रुपये दिये हैं. तथा सूरत निवासी झवेरी भूरियाभाई में जीवनचन्दने २५) रुपये तथा कालियावाडीवाले नेमचन्द । ॐ भाई फकीरचन्दने २५) रुपये दिये हैं इस लिए हम उपरोक्त ॐ सग्रहस्थोंका अंतःकरण पूर्वक उपकार मानते हैं कि जिन्होंने परमपूज्य श्रीमान् हंसविजयजी महाराजके बनाये हुए इस धर्म परिपूर्ण ऐतिहासिक पुस्तकके प्रगट करने में मदद दी है।
श्री हंसविजयजी जैन की लायबेरी के सेक्रेटरी
बडौदा (स्टेट)
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श्रीयुत बाबू लक्ष्मीचन्दजी कर्णावत.
जन्म सं. १९२४ श्रावण वद ३.
अवसान सं. १९७३
वैशाख वद ३.
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श्री जिनेंद्राय नमः
(अर्पण पत्रिका) .. श्रीमान् स्वर्गीय श्रावकवर्य बावुसाहेब
लक्ष्मोचंदजी कर्णावत. आपने इस संसारमें उच्चकुल व सर्वोत्तम धर्म का पाकर श्रीसिद्धाचलजी तथा श्रीसम्मेन शिखरजी तथा 2 श्रीपावापुरीजो वगेरे तीर्थयात्राके साथ देवगुरुस्वधर्मीकी भक्ति करके अपने आत्माका कल्याणकिया और अपने सुपुत्र श्रीयुन हनुमानसिंहजी कलकता निवा-/ सीको संसारमें छोडकर स्वर्ग सिधार गये न श्रीमान् तुम्हारे पुत्रादि परीवारने भी श्री सि
दाचलजी उपर सेठ मोतिशाहको टुंकमें देहरी लेकर श्रीसुपार्षनाथजी आदि परमात्माकी ५ मूर्तियां M स्थापनको जिनका स्तवन निचे रोशन कियाहै इसी
तरह देवगुरु नानको भक्ति ननमन धनसे करके अपने लि M द्रव्यका सदुपयोग कियाई और कर रहे हैं तया से
हमारी संस्थाके प्रथम वर्गके मेंबर होकर सहायता दीहै अतएव इस पुस्तक की आदिमें आपका फाटु देकर यह ग्रन्थ आपको सादर समर्पण कर आपके आत्माको अखंड शांति प्राप्त हो यह चाहते हैं.
आपका सहधर्मी बन्धु ----- प्रकाशक.
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P= == = = =O0 रिउपर दर्शाया हुवा श्रीसिकाचलजीका स्तवन
.... काफी .. नेमि निरंजन ध्यावोरे वनमें तपकीनो
- यह चाल.
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स्वामोसुपार्श्वजिणंदारे, दिये परम आनंदा
ए आंकणी. शांत वदन शीतलना अर्पे । जैसे गगनमें चंदारे ॥ दिये० (१) सिद्धावलपर समवसरणमें। सेवे सुरनर इंदारे ॥ दिये० (२) तैसे तुमारी सेवा कारण । मूर्ति ठवे सानंदारे ॥ दिये० (३) मोति शाहकी टुंके मनोहर। काटे कर्मका कंदारे ॥ दिये० (४) कलकताके निवासी कर्णावत । हरवा भवोभव फंदारे॥ दिये. (५) लक्ष्मीचंदजी मुत हरमानसिंह । हर्ष धरीअमंदारे ॥ दिये. (६) हंस कहे वहां पांच प्रभुकी । प्रतिमा पूजो भवि बंदादिये०(७)
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( सूचना )
जिस महान नररत्न का परिचय इस पुस्तक में कराया गया है उसके जीवन चरित्र की तुलना करके और उसका अनुकरण करके मनुष्य अपने जन्मको सफल कर सकता है । पेथडकुमारने अपनी दरिद्रावस्था में किस प्रकार से धैर्य रक्खा और अपनी उन्नावस्था में अपने द्रव्य को किस तरह सन्मार्ग में. खर्च किया और धर्म को किस प्रकार सेवाकी यह सब बातें पाठकोंको इस छोटीसी पुस्तक से अच्छी तरह मालुम हो जायेंगी । सुकृतसागर काव्य में पेथड कुमारका चरित्र वर्णन किया गया है उसपर से भव्य जीवोंके हितार्थ संक्षेप में यह पुस्तक परमपुज्य शान्त मूर्ति इंससमनिर्मल प्रातःस्मरणीय श्रीमन्मुनि श्री हंस विजयजी महाराज साहबने लिखो है अतएव हम आपका अन्तःकरण पूर्वक उपकार मानते हैं ।
प्रस्तुत वृतान्त ईस्वी सन् १२०० के साल के लगभग अर्थात् १३वीं सदी में बना है। इसके साथ यह ऐतिहासिक वृत्तान्त अपनी जैन समाज को भी उपयोगी होना सम्भव मालुम होता है । उस समय
* “ मांडवगढनो मंत्री पेथडकुमार* से उद्धृत
-प्रकाशक.
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दिल्ली के तख्त पर खिलजी वश का अलाउद्दीन खूनी बादशाह राज करता था जिसने इस्वीसन् १२९७ में कर्णघेला के पास से गुजरात सर किया वही अलाउदीन बादशाह अपने वृत्तान्त के समय में होगा ऐसे आसपासके संयोग देखने और इतिहास का अवलोकन करने से मालुम होता है । और अपने इस वृत्तान्तमेंभी एक जगह ऐसा सुबूत मिलता हैकि अलाउदीनखिलजी से सन्मानित पूर्ण नामक श्रावक जूनागढ आया हुवा था और अपने वृत्तान्त का नायक पेथडकुमार भी वहां गया था। वहां उनका समागम और वादविवाद हुवाथा इस पर से भी अनुमान हो सकता है कि वही अलाउदीन बादशाह होना चाहिये । ऐसेही गुजरात की गद्दीपरभी भीम बाणावली के वंश परम्परा से अनुक्रम से कर्ण, सिद्धराज, कुमारपाल, भोलाभीम वगेरे हुवे । उस भोले भीमके वक्त में दिल्ली की गद्दी पर पृथ्वीराज चौहान था उसके पास से शाहबुदीनगौरीने राज्य ले लिया। यानि दिल्ली की गद्दी शाहबुदीन के हाथ में आई, उसके पास से तुगलकवंशमें और वहां से खिलजी वंश में गई। अपने वृत्तान्त के समय में खिलजो वंश का अलाउदीन बादशाह था और भोले भीम से अनुक्रम से कालान्तर में गुजरात की गद्दी
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पर कर्णवाघेला हुवा जिसके पास से अलाउदीन बादशाहने गुजरातका कब्जा लिया और एक वक्त का राना जंगल में भटक भटक कर मर गया। जिस अर्समें दिल्ली और गुजरात के भाग्य चक्रका चमत्कार हो रहाथा उस वक्त मालवा प्रान्तान्तर्गत मांडवगढ नगर बडा स्मृद्धिशाली था और उस वक्त वहां परमार वंशीय मालवे का प्रख्यात राणा जयसिंहदेव राज्य करता था।
उस वक्त माण्डवगढको स्थिति मध्यान्हकाल जैसी थी परन्तु दैव की गति विचित्र है। काल की गति भिन्न है इससे वह भी काल के चक्कर में पड गया और उसकी बहुतसी निशानियें नष्ट हो गई। इस वक्त वहां एक छोटा सा गांव है उस वक्तका मनोहर किला पृथ्वी ने अपनी गोद में छिपा लिया है । वर्तमान में गॉव के प्रवेशद्वार पर एक पत्थर का तोरण और पृथक २ स्थानों पर प्राचीन मंदिर व खंडरों के चिन्ह दिखाई देते हैं । वहां पर वर्तमान में श्री शान्तिनाथ भगवानका जिनालय है और उसमें स्थित श्रीसुपार्श्वनाथ भगवानकी प्रतिमा महासती सीता के शील के प्रभावसे वज्रभूत हो गई यो जो इस वक्त मौजूद मानो जाति है। बहुतसे जैन लोग वहां यात्रा करने के लिये जाते हैं तब वास्तव में प्रा. चीन छटा का उनको प्रत्यक्ष भान होता है।
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ईस्वीसन् १२०० की सदी में पेथडकुमार का जीवन जगत् को उपयोगी हुवा है उसके गुरु उस वक्त सुप्रसिद्ध श्रीमद् धर्मघोष सूरीश्वर थे उनके लगभग २०० वरस के पीछे उनका चरित्र लिक्खा गया हो ऐसा मालुम होता है क्यों कि उनके पाट परम्परा पर श्री सौमसुन्दर आचार्य हुवे जो लगभग श्रीमद् देव सुन्दरसूरि और ज्ञान सागरसूरि के समय में हुवे हों ऐसा मालुम पडता है । उनके पीछे उनके पटधर मुनि सुन्दरसूरि हुवे और उनके पटधर रत्नसागरसूरि हुवे उनके शिष्य श्री नन्दी रत्नगणी और उनके शिष्य श्रीरत्न मंडन गणी हुवे जिन्होंने सुकृत सागर काव्य उपकारार्थ बनाया। वे प्रायः रत्नशेखर सूरिके वक्त में हुवे हों ऐसा विदित होता है । रत्नशेखर सूरि का जन्म संवत १४५२ में हुवा, १४६३ में दीक्षा ली, १४८३ में पण्डित हुवे, १४९३ में उपाध्याय हुवे, १५०२ में आचार्य पदवी प्राप्त की और १५१७ में स्वर्गस्थ हुवे। उस समय में यानि लगभग २०० बरस में यह वृत्तान्त लिक्खा गया हो ऐसा अनुमान होता है।
आशा है कि इस वृत्तान्त को पढकर पाठकगण उचित शिक्षा ग्रहण करेंगे।
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प्रस्तावना.
वन्दे वीरमानन्दम् । स्वैर्द्रव्यैर्जिनमन्दिराणि रचयत्यभ्यर्चयत्यर्हतविभक्त्या यतिनां तनोत्युपचयं वस्त्रानपानादिभिः। धत्ते पुस्तकलेखनोद्यममुपष्टनाति साधर्मिकान् , दीनाभ्युद्धरणं करोति कलयत्येवं सुपुण्यार्जनम् ॥१॥ इ स अगाध संसार सागरमें अनेक जी
we वात्मा एक भवावतारी हैं, अन्य दो भवों में संसार पार होने वाले हैं, कीतनेही जीव तीसरे भवमें अनादि कालकी डगमगाती हुई अपनी नय्याको पार लगानेका शाही परवाना ले चुके हैं । एवं कोई संख्य जन्मों में और कई असंख्य जन्मों में मोक्ष पद पाने के अधिकारी बन चुके हैं । इतनी शीघ्रता
और आसानीसे जीवात्मा धम सामग्रीको सेवनासे हो इस अपार संसारसे पार हो सकता है । धर्मको सामग्री में कतिपय अंग वह हैं जिनका कि नामनिर्देश ऊपर किया गया है।
मतलब कि कइ भव्यात्मा जिनमंदिरोंके बनवानेसे तथा उनका उद्धार कराने से संसार पारगामी हुए हैं, अर्थात् मुलभ बोधि होकर उत्तरोत्तर उन्नत
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दशाको प्राप्त होते हुए मोक्षाधिकारी हुए हैं। यथा संप्रतिनरेश।
कइ पुण्यात्मा त्रिकाल जिनपूजन करके निज मनको शुभयोगमें स्थिर कर संसारसे उत्तीर्ण हो गये है यथा नागकेतु।
अनेक उच्चात्मा सद्गुरुओंकी सेवासे ही स्वकार्य साधक हो गये हैं। जैसे कि, परदेशी राजा और चौलुक्य चूडामणि कुमारपाल भूपाल । ___ अनेकोंही उदाराशय महानुभाव श्रीजिनागमोंके लेखनादि क्रियाद्वारा उद्धार करने करानेसे जगत्में प्रसिद्धिके पात्र और जन्मांतरमें सद्गतिके भाजन हो गये हैं । जैसेकि, भगवान श्री देवर्डिगणि क्षमाश्रमण और स्कंदिलाचार्य प्रभृति साधुमहोदय तथा गृहस्थोंमें संग्रामसिंह-सोनी आदि सज्जनवृंद । सार्मिक पुण्यात्माओंके बहुमानसे स्वयं बहुमानके पात्र बनने वाले उच्चात्मा तो, श्री जिनशासनमें गणनातीत हो चुके हैं, जिनमें श्री संभवनाथ स्वामी तीसरे तीर्थकर भगवान्का उदार चरित विशेष उल्लेखनीय एवं मननीय और अनुकरणीय हैं ? ___ आपने पूर्व भवमें अति दुर्भिक्षके समय साधमिक लोगोंका पालन निजात्माके समान किया था, जिसके प्रभावसे आप अगले भवमें देवद्धिका उपभोग
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कर इस अवसर्पिणीमें इसी भरतक्षेत्रमें वर्त्तमान चतु विंशतिके तीसरे तीर्थंकर त्रिलोकी नाथ हुये ।
दीनात्माओं के उद्धारकोमें तो अन्य उदाहरणोंकी आवश्यकता नहीं मालूम देती है । भगवान् तीर्थंकर देवका दृष्टांत पर्याप्त हैं । पशुओंके आक्रंदको सुनकर उनको दया विचार उन दीन दुःखी पशुओंको मुक्त कराकर विरक्त हुए हुए विवाहके रथको तुरत पीछे मोडलेने वाले बालब्रह्मचारी प्रभु श्री नेमिनाथ कुमारकी कुमार कथाको, एक विषधर - सर्प को घोर पाप से बचानेके लिये उसके दृष्टि विष और दंष्ट्रा विष - डंकको सहन करके पंदरह दिन तक भूखे प्यासे एक ही स्थानमें उस आत्माके उद्धारार्थ ध्यानस्थ खडे रहने वले चरम तीर्थंकर प्रभु श्री वीर परमात्माकी वीरचर्याको, मेघरथ राजाके भवमें कबूतरकी रक्षाकी खातर शरणागत वत्सल क्षात्र धर्मके लिये जान कुरबान करने वाले सोलमे तीर्थंकर श्री शांतिनाथ प्रभुके धैर्यको एवं यज्ञमें हवन किये जाने वाले एक घोडेको बचाने के लिये और उस गिरी हुई आ
के उद्धारकी खातर एकदम साठ योजनका विहार करके आने वाले बीसमे भगवान् श्री मुनिसुव्रतस्वामी तीर्थकरके उस परोपकार रूप सुव्रतको कौन भूल सकता है ? |
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HERSIGEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
मांडवगढ और पेथडशाह
999999999993393333333333 कवि कालिदासने एकठिकाने लिखा है कि
यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीनामाविष्कृतोऽरुणपुरस्सर एकतोऽर्कः। तेजोद्वयस्य युगपद्व्यसनोदयाभ्यां, लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ॥१॥
वह १२ योजन लंबी और ९ योजन चौडी अयोध्या जिसमें भरत और मगरजैसे षट् खंडाधिपति, हरिश्चन्द्र, और दधीचि जैसे सत्यसंध, राम लक्ष्मण जैसे प्रजापालक नरपति हो गये आज किस हालतमें है ? जहां शांतिनाथ, कुंथुनाथ, और अरनाथ जैसे तीर्थकर सम्राटोंके जन्माभिषेकादि कल्याणकोंके समय देव देवेंद्रोंका आगमन हुआथा, आज वह हस्तिनापुर किस गिनतीमें है ? जिसको आबाद करके चित्रांगद राजाने आदेश किया था कि, यहां करोडपतिके सिवाय और किसीको स्थान न मिलेगा? आखीर करोडपतियोंसे तमाम जगह भरजानेसे लक्षाधिपतियोंके लिये तलहट्टी पर हजारों मकान
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बनाने पडे थे आज वह चित्रकूट (चितौड) नाम और कथा शेषके सिवाय और किस बातका अस्तित्व रखता है ? .
और सुनिये । राजग्रही कि जहां श्रेणिक राजा के श्रेणिबद्ध हाथी झूला करते थे, जहां धन्ना-शालिभद्र जैसे दिव्यभोगी श्रेष्ठिनंदन रहते थे । नालंदा पाडा कि जहां-भगवान् ज्ञातनंदन श्रीमहावीर प्रभुके चौदह चौमासे हुये थे, और कुछ अरसेके बाद जहां बौद्ध धर्मका महाविद्यालय ऐसा विशाल बना था कि जिसमें चीन तक विद्यार्थी पढनेको आया करते थे। आज वह नगरी देखनेको भी कहीं है ? हां खंडहर तो पडे हैं।
सारनाथ जो स्थान बुद्धदेवके प्रथम उपदेशके कारण संसार भरमें प्रसिद्ध था, अशोक जैसे महाराजाओंने जहां गगनचुंबी मंदिर बनवाये थे, आज उस स्थानमें दिनमें भी भय लगता है।
काश्मीर देशके प्रख्यात शहर श्रीनगरके निकट डल नदीके किनारे जहांगीर बादशाहने जो महल बनवाया था उसमें काश्मोरकी कुल आमदनी खर्च की जाती थी। इसके इलावा एक करोड दस लाख रुपया
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बादशाही खजानेसे भी खर्च किया गया था। इस महलके आसपास नसीम, नशात और शालामार नामके तीन बागीचे लगाये गये थे। जिन्हें देखकर मनुष्य उन्हें स्वर्ग और सुमेरु समझ लेते थे। जिनमें बादशाह नूरेजहां के प्रेममें मशगूल होकर दोनों जहांनांसे बेखबर फिरा करताथा । आज उस महलका नामोनिशान नहीं रहा है, बागीचोंमेंसे केवल एक बागमें कुछ साधारणसे पेड (वृक्ष खड़े हैं।
इधर बम्बइ कलकत्ता जैसे भारतके सुप्रसिद्ध शहर कि, जहां कुछ समय पहले थोडे थोडे झापडे पडे. थे आज उनमें लाखों मनुष्योंकी बस्ती है। इससे सिद्ध है कि, आज जिसका उदय है कालांतरमें उसका अस्त है और आज जो सूखा पड़ा है कालांतर में वहखिलेगा। परिवर्तन रूपही तो संसार है । किसी कविने ठीकहो कहा है:-नीचैर्गच्छ त्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण." __इसी प्रकार आज जो मांडवगढ वीरान उजाडसा पडा है, वही मांडवगढ इस दशा था कि, जहां के रहने वाले सेठ-भैंसाशाहने करोड़ों रुपये खर्चके गुजरात देशके व्यापारियोंको नीचा दिखाया था ? यह कथा जैनसंप्रदाय शिक्षा आदि भाषाग्रंथों भी
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लिखी गई है । प्रायः बहुत से जैन लोग इसबातसे खूब परिचित हैं ।
artisan है कि, जहां के रहने वाले संग्रामसिंह - सोनीनें अपने धर्माचार्य श्री ज्ञानसागरसूरके प्रवेश महोत्सबमें ७२ लाख द्रव्य खर्च किया था । ६३ हजार अशर्फियां - सोनामोहरों से ज्ञान पूजन कर श्रीगुरुमुखसें पंचमांग - श्रीभगवती सूत्रका व्याख्यान सुना था ।
प्रसंग वश संग्रामसिंहकी उदारताका और सदाचारताका कुछ परिचय दिया जाना अनुचित नहीं
कहा जायगा.
एक दिनका जिकर है कि, संग्रामसिंहने गुरुमहाराजके चरणों में प्रार्थना की कि, प्रभो ! आप जैसे गीतार्थ गुरुओं का योग बडे पुण्यसे मिलता है इसलिये आप कृपा करें, व्याख्यानमें प्रभावशाली श्री भगवतीसूत्र सुनावें, ताकि आपसे सद्गुरुका मिला योग सफल होवे । गुरुमहाराजने समयानुसार योग्य श्रोता समाजको देख शुभ मुहूर्त्त में श्री भगवती सूत्रका व्याख्यान शुरू कर दिया । सोनीजीको सुननेमें इतना प्रेम और उत्साह आया कि, गुरुमहाराजके सुनानेमें श्री भगवतीसूत्रके पाठ में जब जब गोयमा यह पद
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आता था तब तब सोनीजी एक एक सोना मोहर ज्ञान पूजामें भेट करते थे अर्थात् ज्ञानपर चढाते थे । श्रीभगवती सूत्र में गोयमा शब्दका प्रसंग ३६ हजार वार आता है. उसमुजिब ३६ सहस्र मोहरें तो खुद सोनीजोने ज्ञान पर चढाई । प्रति प्रश्न इसी प्रकार आधी आधी मोहरके हिसाब से १८ हजार मोहरें सो नीजीकी धर्म पत्नीने चढाई और चतुर्थांशके हिसासे ९ हजार पुत्रवधूने चढाईं । एवं कुल ६३ हजार मोहरें समझ लेनी । कहते हैं कि इस रकममें एक लाख पैंतालीस हजार मोहरें और मिलाकर इन कुल २ लाख ८ हजार मोहरें ज्ञान - पुस्तकोंके लिखवाने में खर्च करदों । संग्रामसोनीके लिखवाये सुनहरी चि त्राम और सुनहरी ही अक्षरोंके कल्पसूत्र मूल-जोकि बारां सौ के नामसे जैन समाजमें प्रसिद्ध है, प्रायः बहुत से जैन भंडारोंमें उपलब्ध होते हैं ।
उदारता के साथ आप सदाचारी - ब्रह्मचारीस्वस्त्री संतोषीभी परले दर्जेके थे । एक वक्तका जिकर है
बगीचेकी सैर करते हुए बादशाहने तमाम आम फले हुए देखे, किंतु एक आम ऐसा देखा कि जि
१ ऐसी प्रतियां बडोदा ज्ञानमंदिरमें महाराज श्री हंस विजयजी के पुस्तक संग्रहमें मौजूद हैं ।
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सका फल फूल कुछभी नहीं था । बाहशाहने बागवानसे पूछा, इस वृक्षकी यह दशा क्यों ? मालीने कहा-जहांपनाह ! यह वृक्ष वंध्य है। बादशाहने कहा, तो फिर इसके रखनेसे क्या लाभ ? इसे कटवा दो। पासमें सोनीजी भी खडे थे, आप राजमान्य भी थे। अपने अर्ज करदी कि, बराय महरबानी आप इसे खडा रहने दें, मैं इसको समझा दूंगा। मैं उम्मीद करता हूं यह वृक्ष एक सालके अर्सेमें फल देगा ! बादशाहने सोनीजीके विनयको मान लिया। ___ अब सोनीजी रोज वागमें जाकर स्नान करते हैं और अपनी धोतीका पल्ला उस आमके वृक्षकी जडमें निचोडते हैं । साथमें हाथ जोडकर प्रार्थना करते हैं कि, हे वनदेवतामहाराज! मैंने जन्मसे लेकर आज पर्यंत परस्त्रीका संसर्ग नहीं किया है, अपने ब्रह्मचर्यको प्राणोंसेभी अधिक प्रिय मानकर सुरक्षित रखा है। यदि मेरे ब्रह्मचर्यका सच्चा प्रभाव है तो यह वृक्ष फल दे। हुआ भो यही-दूसरे वर्ष सब वृक्षांसे पहले उस वृक्षके पुष्प आया तथा सबसे प्रथम ही फल भीआये । बागवानने कुछ फल बादशाहको भेट किये, और सब बात सुनाई। बादशाह बहुत खुश हुआ और सोनीजीको बडे आदर सत्कार पूर्वक हाथी परबैठा सारे नगरमें बाजे गाजेके साथ फिराकर राज दरबारमें
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ला उतारा और पारितोषिक व पोशाक इत्यादिसे यथोचित सत्कार कर उन्हें उनके घरकी ओर विदा किया। इस घटनाका समय विक्रम संवत् १५२० की आसपासका है । विशेष परिचयके लिये लघुपोशालीय गच्छ पट्टावली और संग्रामसोनीकृत बुद्धिसागर ग्रंथ देख लेना ठीक है । इस पुरुष रत्नकी उत्पत्ति इसो.मांडवगढमें थी ?।।
सहस्रावधानी आचार्य श्रीमुनिसुंदर मूरिजोके पशिष्य आचार्य श्रीलक्ष्मीसागर सूरिजीने जिन ११ सुयोग्य मुनियोंको अपने हाथसे आचार्य पदवी प्रदान की थो। उनमेंसे एक आचार्य महाराजका नाम था साधुरत्नसूरि । ये आचार्य बडे वैराग्यवान थे, इन. का जीवन चरित्र बडा ही रोचक और हृदयद्रावी है। ___ ये सूरि महाराज अपने परिवारसहित मांडवगढ पधारे । इनके धर्मोपदेशकी नगरमें बडी धूम मचगई. थी, कई धर्मात्मा लोगोंने अनेक धर्म कृत्यों द्वारा अपना अपना जीवन सफल किया।
इसी नगरमें जावडशाह नामा एक श्रीमाली साहूकार रहता था। उस समय उसकी बराबरी करनेवाला अन्य कोई श्रीमाली वहां नहीं था। इसी लिये जावडशाह-'श्रीपालभूपाल' और 'लघुशालिभद्र' इन दो उपनामोंसे संबोधित किया जाता था। इस
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पुण्यात्माने आचार्य महाराजश्रीके नगर प्रवेशोत्सव में दानादि शुभ कार्यों में एक लाख रुपयोंका व्यय कियाथा |
श्री ऋषभदेव, श्रीशान्तिनाथ, श्रीनेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ, और श्री महावीर स्वामी इन पांच तीर्थकरों के पांच मंदिर बनवाये । एक ११ सेर सोनेकी और एक २२ सेर चांदीकी एवं दो श्री जिनप्रतिमा बनवई' । इन सब मंदिरोंकी और प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा जाडशाहने इन्ही पूर्वोक्त आचार्य महाराज से करवाईथी । प्रतिष्ठामें उदार दिलके जावडशाहने ११ लाख द्रव्य व्यय कियाथा ।
वाहरे ! मांडवगढ ! तुझे नगर कहिये कि पुप्यभूमि या स्वर्ग कहिये ?
अंतिम प्रमाण हमें पट्टावलियों द्वारा यहां तक मिलता है कि, जहांगीर बादशाहके राजकालतक इस नगरीकी ध्वजा खूब फहरातीथी । उक्त बादशाह इसी नगर में श्री विजयदेव सुरिजीको महातपा को पदवी दी थी।
इस घटनाका समय विक्रम संवत् १६७४ है । अभीतक जिन महापुरुषोंका अर्थात् संग्रामसिंह सोनी, जावडशाह और श्री विजयदेवसूरिजीका उल्लेख
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ऊपर किया गया है, वह क्रमसे सोलहवी और सतारवी सदी के नररत्न थे। अपने चरित्र नायकका समय उनसे भी दो सदी पहलेका होनेसे उस वक्तका मांडवगढ तो और भी ऋद्धि वृद्धिमें चढता था । पेथड - शाहने जो करोडों पये धर्मकार्यों में खर्च किये, इसमें एक आर भी कारण था । पेथडशाह व्यापार में निपुण था इतना ही नहीं, बल्कि उसके पुण्यके प्रभावसे वह, मांडवगढके नायक राजा जयसिंहका मंत्री भी था । इसके इलावा उसका पुण्य ऐसा जबरदस्त था, जिधरको वह हाथ बालता चारों हाथों सें मानो लक्ष्मी देवी उसका सत्कार करती थी ।
“ पेथडशाहके प्रसिद्ध कृत्योंका दिग्दर्शन.' १ आचार्य श्री धर्मघोषसूरिजी के पास परिग्रह प्रमाण ५ लाख टंक रखा था ।
२ गुरु महाराजैसे सम्यक्त्व स्वीकार किया उसके उत्सव निमित्त एक एक लडु और एक एक टंककी एक लाख पचीस हजार अपने साधर्मिक भाईयों को प्रभावना दी थी।
१३ राजा जयसिंहके मांगने से चित्रावेल और कामकुंभ जो उसके पास थे राजाको भेट कर दिये थे ।
४ एक ही रोजमें २६ योजनका पंथ करके गुरु महाराजके आगमन की - ( पधारनेको) खबर लाने वाले
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१७ आदमीको वधाईमें एक सोनेकी जीभ - ( जवान) और बत्तीस हीरे के दांत बनवा दिये थे ।
५ बहत्तर हजार सोनामोहरें गुरु महाराजके नगर प्रवेशमहोत्सव में खर्च की थी।
६ गुरु महाराजकी देशनाको सुनकर १८ लाख द्रम्म खर्च कर ७२ देवकुलिका सहिन "शत्रुंजयावतार" इस नामका बडा भारी श्री जिनचैत्य मांडवगढमें ब
नवायाथा । *
७ सवा करोड रुपया दानशालओं में खर्च किया । ८ हरएक मासकी द्वितीया, पंचमी, अष्टमो, एकादशी, और चतुर्दशी इन दशदिनों में सातही व्यसनके निषेधकी राज्यकी तर्फसे मुनादी - ( उद्घोषणा ) कराई |
९ राजा जयसिंहको समझा कर व्यसनोंसे बचाया। १० बत्तीस वर्षकी भर जवानीमें स्त्री सहित चतुर्थव्रत - ब्रह्मचर्य व्रतका स्वीकार किया और यावजीव - ( ताजिंदगी) विशुद्ध हृदय से उसका पालन किया.
* बाकी अन्य जैनमंदिर कितने बनवाये उनकी नामावलि देनेके लिये अवकाश न होनेसे इतनाही कह देना पर्याप्त है कि, इस कार्यकी संख्या के लिये वाचक महोदय " सुकृतसागर काव्यका चतुर्थ तरंग और प्रस्तुत हिन्दी ग्रंथ देख लेनेकी कृपा करें ।
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११ प्रतिदिन प्रातः और सायं दोनों समय प्रतिक्रमण करनेका नियम।
१२ त्रिकाल प्रभुपूजा करनेका नियम । ... " कुछ विशेष-ज्ञातव्य बातें.” - संसारमें प्रसिद्ध बात है कि, " जैसा आहार वैसा डकार" मनुष्यके अंत:करणके भाव उसके कार्योंसे जाने जाते हैं। मूल ग्रंथमें पेथड मंत्रीके ब्रह्मचर्य व्रतका वर्णन किया गया है, उसमें खास एक बात बडे मारकेकी है जो नीचे लिखी जाती है। ताम्रलिप्ती नगरीके भीमसिंह-सोनीने ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया उसकीखुशीमें अनेक ठिकाने समान धर्मवाले ब्रह्मचर्य व्रतधारी धर्मात्माओंको पोशाकेंभेजीं। शासन प्रभावक समझकर पेथडशाहको भी एक पोशाक भेजी। पेथडशाहने आदर पूर्वक वह पोशाक लेली परंतु पहनी नहीं। पेथ इशाहको इस वारेमें कुछ उदासीन देख कर उनकी धर्मपत्नीने पूछा कि, आप इस पोशाकको उपयोगमें क्यों नहीं लाते ? शेठजीने उत्तर दिया-प्रिये ! ब्रह्मचारिकी दी हुई वस्तु ब्रह्मचारीको ही शोभा देतीहै, मेरे जैसे कायरोंको उन पुरुषसिंहोंका वेश नहीं शोभता! हां यदि तूं अनुमति दें तो मैं भी ब्रह्मचर्यव्रत लेकर उन उत्तम पुरुषोंकी पंक्तिमें दाखिल हो सकता हूं। मैं संसारके विषय सुखोंको
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हलाहल विष समझता हुआभी तेरे आग्रह और लिहासे भोगी बना हुआ हूं ! मेरी इच्छातो विरक्त होनेकी ही है। स्त्रीने सविनय प्रार्थना की, प्राणनाथ ! ' सतो पत्यनुगामिनी' - पतिव्रता सती खोका धर्म है कि, जो पति देव कहें सहर्ष उनकी आज्ञाका पालन करें । आप बडी खुशीसे अपना मनोरथ सफल करें, मैं भी साथमें ही तैयार हूं । बस फिर देरी ही क्या थी ? बडे आनंदसे उत्सव पूर्वक ३२ वर्षकी युवावस्थामें दंपतिने विधि सहित गुरुमहाराजके समक्ष ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया । धन्य है ऐसे धर्मधन पुरुष सिंहों को !!
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उपकार स्मरण और गुरुनक्ति. '
ऊपर श्री धर्मघोषसूरके प्रवेशका संकेतमात्र वर्णन कियाजाचुका है. इस लिये पुनः लिखना पुनरुक्ति है, तो भी एक बात खास वर्णनीय है। वह यह कि - जब कभी शाह गुरुमहाराजके अपने पर हुए उपकारौंको स्मरण करता तब उसका दिल भर आता, कंठ गदगद होजाता, हाथ जोड कर परम विनीत भावसे प्रत्यक्ष वा परोक्षमें उसके मुखसे जो जो उद्गार निकलते, उनका लेश मात्र 'दिग्दर्शन सुकृत सागर' नामा ग्रंथ में ग्रंथकर्त्ताने कराया है; उनमें से
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वाचकोंके विनोद एवं आनंदके लिये एक काव्य यहां पर उवृत किया जाता है।
प्रक्षाल्याक्षतशीतरश्मिसुधया गोशीर्षगाढवैलिप्त्वाऽभ्यर्च्य च सारसौरभ सुरनत्य प्रसूनैः सदा । त्वत्पादौ यदि वाहयामि शिरसा त्वत्कर्तृकोपक्रियामाग्भारात्तदपि श्रयामि भगवन्नापर्णतां कर्हिचित् ॥१॥
. भावार्थ-हे भगवन् ! यदि मैं पूर्णमासीके अखंड चंद्रसे निकली सुधा-अमृतसे आपके चरणोंको प्रक्षा. लन करूं, गोशीर्ष नामा उत्तम बावना चंदनसे विलेपन करूं, उत्तम सुगंधवाले कल्पवृक्षके पुष्पोंसे पूजन करूं, इस प्रकार प्रक्षालित-विलिम्पित-पूजित आपके उत्तम चरणोंको सदा अपने मस्तकोपरि उठाये फिरूं, अर्थात् आप उपकारीको मैं सदा अपने शिर पर लिये फिरूं, तो भी हे गुरु देव ! आपके ऋणसे कबी भी किसी प्रकार भी मैं अनृण नहीं हो सकता हूं!"
- सत्य है ! सचे गुरु भक्तोंके गुरुओंपति ऐसे हीहार्दिक भाव प्रकट होते हैं ! । फैजी नामा शायर फारसीके कविने भी एक स्थान पर ऐसा ही भाव प्रकट करते हुए गुरुकृपाके संबंधमें लिखा है। पहाए रव्वेश मेदानम् , बनो मे जो नमे अर्जद ।
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अगर मौला नजर शाजद, बहाए बे बहा गर्ददः । अर्थात्-“हे स्वामिन्! आपकी कृपा के विना मेरी कीमत आधे जौं जितनी भी नहीं है। और यदि आपको कृपा पूर्ण है तो मेरे जैसा धनवान् भी कोई नहीं है। बस फिर तो मैं बादशाहोंका भी बादशाह हूं।"
पुरातत्व के प्रथम अंक में विद्वद्वर्य मुनिश्री पुण्यविजयजीने एक प्रशस्तिका विवेचन करते हुये पेयडशाहके सुकतोंका वर्णन लिखा है, संभव है कि वह पैथड भी यहो होकि जिसका उल्लेख इस ग्रंथमें है । इतना तो अवश्य अनुमान हो सकता है कि, प्रशस्तिमें लिखे पेथडके समयमें भोलाकर्ण बालक था। तब भोला कर्णका बालक होना पेथडशाहके अस्तित्वका समय है। क्योंकि सारंगदेव पेथडका समानकालीन था। उसका समय विक्रम संवत् १३३० से १३५१ तकका है । सारंग देवका उत्तराधिकारी भोला कर्ण था, जो १३५१ में गादी पर बैठा था और ६ वर्ष १० मास १५ दिन तक गुजरातका छत्रपति रहा था।
___ एक पर्यालोचनाकितनेक लोग शंका करते हैं कि, इतमा धन आज क्यों नहीं ? उन महानुभावों को समझना चा
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हिये कि, सदाकाल किसी भी मनुष्यकी या देशको परिस्थिति एक जैसी नहीं रहती है । आज सुनते हैं कि, पश्चिम देशमें दश करोडका मालिक एक सामान्य हालत वाला कहा जा सकता है। तारीख ९ अगष्ट १९२३ के जैन पत्र (भावगनर-काठियावाड ) से पता चला है कि, अमेरिकन जॉन डेविड्सन शेक फॅलरकी आमदनी आजसे वीस वर्ष पहले वार्षिक दश करोड डॉलर थी ! आज तो न जाने कितनी बढी या घटी होगी ?। आज काल हिन्दुस्तानके पोछे दुर्व्यसन थोडे नहीं लगे हुए हैं ! हिंदुस्थानको तो प्रायः व्यसनोंने ही नष्ट भ्रष्ट कर दिया है ! कुछ महीने पहले लाहौर (पंजाब)के एक उर्दू पत्र में लिखा मुना था कि, हिन्दुस्थानी लोग गत ११ वर्षों में डेढ अरबकी शराब पी गये ! कहिये वह डेढ अरब रुपया हिंदका ही स्वाहा हो गया न ? ऐसी तो फजूल खरची इतनी बढ़ गई हैं कि, जिसके उल्लेखका एक बडा भारी पोथा सा बन सकता है ? दिग्दर्शन मात्र देखनेकी इच्छा होवें तो "भारतदुर्भिक्ष" नामा पुस्तक देख लेना, आशा है उसके पढनेसे थोडी घनोतो कुंभ करणकी नींद अवश्य खुलेगी!
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"ग्रंथ रचनाका परिचय और उपसंहार."
पेथडशाहका वर्णन यद्यपि श्रीमुनि सुंदरसूरिकृत पहावलोमें, श्री रत्नमंदिरगणिकृत उपदेश तरंगिणीमें, पंडित सोम धर्म विरचित उपदेश सप्ततिमें, उपदेश रसाल में, झांझण प्रबंधमें, तथा गुर्जर प्राचीन काव्यसंग्रहमें भी मिलता है* तथापि इसका मूल आधार पुस्तकका नाम " सुकृतसागर” है, जो ग्रंथ संस्कृतमें है । जिसके रचयिताका शुभ नाम महाकवि श्री रत्नमडनगणि है। इन महात्माका सत्ता समय इस मुजिब निर्णीत है। जन्म-विक्रम संवत् १४५७ । दीक्षा १४६३ । पंडित पद १४८३ । वाचक-(उपाध्याय) पद १४९३ । आचार्य पद १५०२
और स्वर्गवास १५१७ । इसलिये चरित्रनायक पेथडशाहके समयके साथ इस ग्रंथकी घटना बहुत निकट संबंध रखतो है।
ऊपर लिखा जा चुका है कि, पेथडशाह मंत्रीके संबंधमें पूर्वाचार्योंने एवं पंडित महानुभावोंने अनेक ग्रंथोमें इस उद्धारक पुरुषके सुकृत्योंका वर्णन किया
• केवल मांडवगढका वर्णन देखने वालोंको आ. यने अकबरी और तवारीख मालवा आदि उर्दू-फारसीकी पुस्तकें देखलेनी योग्य है।
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है, परंतु वह सब ग्रंथ संस्कृत भाषामें होनेसे आजकालके संस्कृत विद्याके प्रायः प्रतिपंथिरूप जमाने में सर्व साधारणको उपकारी नहीं हो सकते हैं। इसी वास्ते इसको गुजराती माषामें किसी प्रकार मिहनत परिश्रम उठाकर-विक्रम संवत् १९७० में अहमदाबाद निवासी श्रद्धालु धर्मात्मा शेठ मोहनलाल मगनलाल ज्हौरीने किसीकी मारफत लिखवा कर प्रकाशित कराया है । बेशक ! सेठजी साहबने गुजरात देशवासी एवं गुजराती भाषाके प्रेमियोंको तो पेथडशाहके चरित्रामृतका पान कराया, परंतु इस गुजरातो भाषाके अनभिज्ञ संस्कृतशून्य इतर भाइयोंके लिये तो वही बारांवरसी कालवाला ही हिसाब बना रहा ! तथापि “बहुरत्ना वसुंधरा" " परोपकाराय सतां विभूतयः” के हिसाबसे लब्ध प्रतिष्ठख्याति पात्र-स्वनाम धन्य-शान्तमूर्ति मुनिमहाराज १०८ श्री हंसविजयजी महाराजने हिन्दी भाषा प्रेमियों के उपकारार्थ यह मुश्लाघ्य उद्यम किया है। आपको सच्चारित्रना, सदाचार-कर्तव्यपरायणता, विरक्तता, उदारता, उपकारिता आदि अनेक गुगोंसे
भरी हुई जीवनोको पढनेसे अवश्य आनंद प्राप्त होता . है। आपकी जीवनी हसविनोद नामा पुस्तकको
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प्रस्तावनामें इसी लेखककी लेखिनीसे लिखी गई है। क्योंकि आपका इस लघुतम धर्मबंधुपर प्रथमसेही धर्म प्रेम अधिक है और इसी लिये प्रसंग पाकर निजकृत धर्मकृत्यों में मुझ नाचीजको भी हिस्सेदार बनानेकी कृपा करते रहते हैं । प्रस्तुत पुस्तकको प्रस्तावनाके लाभकी तरह हंसविनोद पुस्तककी प्रस्तावनाका लाभ भी आपने इसी सेवकको दिया है । आपने अपनी कृति ओर अपने नामके साथ सेवकको मिलाकर सेवकोपरि जो उपकृति, कीहै इस बातका सेक्क आपका ऋणी है।
अंतिम वक्तव्य. इस लघु परंतु अत्युपयोगी आपके लिखे इस ग्रंथकी प्रस्तावना लिखनेको आपकी आज्ञाको शिरोधार्य समझकर मैनें यथामति यथाशक्ति उस पवित्रात्माकी जीवनोपर कुछ प्रकाश डालनेका उद्यम किया है । सजन गुणग्राहियोंका धर्म है मेरो भूल
और धृष्टताका ख्याल न कर वह अपनी प्रकृतिके योग्यही कार्य करें । पेथडशाहक पुत्ररत्न झांझणशाहके लिये मूल पुस्तकमें काफी जिकर आचुका है इस लिये इनके संबंधमें मैनें यहां कुछ नहीं लिखा है पाठक महाशय मूलपुस्तकको देखनेकी ही कृपा
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करें । पेथडशाहके संबंध भी यात्रादिके प्रसंगों पर कुछ विशेष विचार करना चाहाथा परंतु स्थान और समयके संकोचसे इतनेसे ही संतुष्ट होकर विशेष जिज्ञासुओंको सुकृतसागर ग्रंथके देखनेकी सूचना करता हुआ संक्षिप्त रुचिवालोंको इसो ग्रंथको सायन्त पढनेकी प्रार्थना करता हुआ अपनी स्खलनका मिथ्या दुष्कृत देता हुआ पुनरपि ऐसे शुभ कार्यके करनेकी अभिलाषा रखता हुआ पाठक महोदय क्षमा कीजिये मैं आपसे विदा होता हूं।
निवेदकसुप्रसिद्ध जैनाचार्य १०८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि (आत्मारामजी) शिष्यरत्न स्वनामधन्य श्री लक्ष्मीविजयजी शिष्यमुनि महाराज श्री हर्षविजयजी शिष्य प्रसिद्ध विद्या प्रेमी मुनि श्री वल्लभविजयजी शिष्य पंन्यास मुनि ललितविजय.
होशियारपुर (पंजाब.) विक्रम १९८० श्रावण शुक्ला द्वितीया।
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श्री सोमतिलकसू रिपादैविरचितं श्रीमंम्पर्गमंत्री पृथ्वीधर (पेथमकुमार) साधुकारित
चैत्यस्तोत्रम्..
श्री पृथ्वीधरसाधुना सुविधिना दीनादिषु दानिना भक्तश्रीजयसिंहभूमिपतिना स्वौचित्यसत्यापिना। . अद्भक्तिपुषा गुरुक्रमजुषा मिथ्यामनोषामुषा सच्छीलादिपवित्रितात्मजनुषा प्रायःमणश्यद्रुषा ॥१॥ नैका पौषधशालिकाः सुविपुला निर्मापयित्रा सता मन्त्रस्तोत्रविदीर्णलिङ्गविकृतश्रीपार्षपूजायुजा। विद्युन्मालिसुपर्वनिर्मितलसद्देवाधिदेवाव्हयख्यातज्ञाततनूरुहमतिकृतिस्फूर्जत्सपर्यासजा ॥२॥ त्रिकाले जिनराजपूजन विधि नित्यं द्विरावश्यक साधौ धार्मिकमात्रकेऽपि महतीं भक्तिं विरक्तिं भवे । तन्वानेन सुपर्वपौषधवता साधर्मिकाणां सदा वैयारत्यविधायिना विदधता वात्सल्यमुच्चैर्मुदा ॥३॥
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२८
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श्रीमत्संप्रतिपार्थिवस्य चरितं श्रीमत्कुमारक्षमापालस्याप्यथवस्तुपालसचिवाधीशस्य पुण्याम्बुधेः । स्मारं स्मारमुदारसंमदसुधा सिन्धूर्मिषून्मज्जता श्रेयः काननसेचनस्फुरदुरुमा भवाम्भो मुचा सम्यन्यायसमर्जितोर्जितधनैः सुस्थान संस्थापितैये ये यत्र गिरौ तथा पुरवरे ग्रामेऽथवा यत्र ये । प्रासादानयनप्रमाइजनका निर्मापिताः शर्मदास्तेषु श्रीजिननायकानभिधया सार्द्धं स्तुवे श्रद्धया ॥ ५ ॥ पञ्चभिःकुलकम्
श्रीमद्विक्रमतस्त्रयोदशशतेष्वन्देष्यतीतेष्वथो विंशत्याभ्यधिकेषु मंडप गरौ शत्रुञ्जयभ्रातरि । श्रीमानादिजिनः १ शिवाङ्गजजिनः श्रीउज्जयंता निम्बस्थूरनगेरथ तत्तलभुवि श्री पार्श्वनाथः ३ श्रिये ॥६॥ जीयादु ... यिनीपुरे फणिशिराः ४ श्रीविक्रमारूपे पुरे श्रीमान्नेमि जिनोर जो नौ मुकुटीकापुर्यां चदपार्श्वादिमों ७ । मल्लिः सोधहरोस्तु बोधनपुरे ८ पार्श्वस्तथाशापुरे ९ नामेयो बनघोषकीपुर ।रे१० शान्तिर्जिनोऽर्यापुरे ११ ॥७॥ श्रीधारानगरेथवर्द्धनपुरे श्रीनेमिनाथः पृथक् १२, १३ श्रीनाभेयजिनोथ चन्द्रपुरोस्थाने १४ सजीरापुरे १५ ॥ श्रीप व जलपद्र १६दाहडपुरस्थानद्वये १७ संपदं देयाद्दीरजिनश्च हंसलपुरे १८ मान्धातृमूले जितः १९ ॥८॥
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आदीशो धनमातृकाभिधपुरे २० श्रीमङ्गलाख्ये पुरे २१ तुर्यस्तीर्थकरोऽथ चिक्खलपुरे श्रीपार्श्वनाथः श्रिये २२ । श्रीवीरो जयसिंहसंज्ञितपुरे २३ नेमिस्तु सिंहानके २४ श्रीवामेय जिना सलक्षणपुरे २५ पार्थस्तथैन्द्रीपुरे २६ ॥९॥ शान्त्यै शान्तिनिनोस्तु ताल्हणपुरे२७ऽरो हस्तनाग्रे पुरे २८ श्रीपार्थःकरहेटके २९ नलपूरे ३० दुर्गे च नेमीश्वरः ३१ । श्रीवीरोऽथ विहारके ३२ स च पुनः श्री लम्बकर्णीपुरे ३३ खण्डोहे किल कुन्थुनाथ३४ऋषभःश्रीचित्रकुटाचले ३५॥१०॥ आधःपर्णविहारनामनि पूरे ३६ पाचश्व चंद्रानके :७ वयामादिजिनोऽथ३८तीलकपुरेजीया द्वितीयोजिन:३१॥ आयो नागपूरे४० ऽथ मध्यकपुरे श्रीअश्वसेनात्मजः ४१ श्रीदर्भावतिकापुरेऽष्टमजिनो४२नागहदे श्रीनमिः४३ ॥११॥ श्रीमल्लिर्धवलकनामनगरे ४४ श्रीजीर्णदुर्गान्तरे ४५ श्रीसोमेश्वरपत्तने च फणभृलक्ष्मा ४६ जिनो नन्दतात् । विशःशंखपुरे जिनः ४७ सचरमः सौवर्त्तके १८ वामनस्थल्यानेमिजिन:४९.शशिप्रमनिनोनासिक्यनाम्न्यांपुरि५० श्रीसोपारपुरे५१ऽथ रूणनगरेऽ५२थोरुङ्मलेऽ५३थ पतिष्ठाने पार्थजिन:५४ शिवात्मजजिना श्रीसेतुबन्धे५५ श्रिये। श्रीवीरो वटपद्र५६नागलपुरे५७ष्ठकारिकायां ५८ तथा श्रीजालन्धर५९देवपालपुरयो ६० श्रीदेवपूर्वेगिरौ६१॥१३॥ चारूप्ये मृगलाञ्छनो जिनपतिदरनेमिःश्रिये देणते ६३ नेमीरत्नपुरे ६४ऽजितोर्बुकपुरे ६५ मल्लिच कोरण्टके ६६।
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पार्थो ढोरसमद्रनीति ६७ सरस्वत्याव्हये पत्तने कोटाकोटिजिनेन्द्रमण्डपयुतः६८ शान्तिश्च शत्रुअये६९॥१४॥ श्रीतारापुर७०वईमानपुरयोः ७१ श्रीनाभिभूसुव्रतो नामेयो वटपद्र७२गोगपुरयो७३श्चन्द्रप्रभा विच्छने ७४ ओंकारेऽद्भुत तोरणं ७५ जिनगृहं मान्धातरित्रिक्षणं ७६ नेमिर्विकननाम्नि ७७ चेलकपुरे श्रीनाभिभू७८भूतये ॥१५॥ इत्थं पृथ्वीधरेण प्रतिगिरिनगरग्रामसोमं जिनाना-- मुच्चैश्चैत्येषु विष्वहिमगिरिशिखरैः, स्पर्द्धमानेषु यानि । बिम्बानि स्थापितानि, क्षितियुवतिशिरः, शेखराण्येष वन्दे तान्यप्यन्यानि यानि,त्रिदशनरवरैः,कारिताऽकारितानि१६
मगिरिशिलामसी जिनातये ॥१६॥
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अनुक्रमणिका.
विषय. पेथडकुमार का परिचय पुत्ररत्न की प्राप्ती पेथडकुमार अपने घर पर पहुंच गया। गुरु भक्तिः । ब्रह्मचर्य व्रत राज्य के अंदर सात व्यसनों का निषेध पेथडकुमार की तीर्थयात्रा ज्ञानभक्ति और ज्ञानमंदिर पेथडकुमारकी प्रभुभक्ति कलशारोपण पेथडकुमारका स्वर्गवास झांझन कुमार मंत्रीकी तीर्थयात्रा सारंगदेव राजाका मन्तव्य कर्णावती में प्रवेश और ९६ राजाओं का बंधन मुक्त होना
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स्वदेश में शुभागीमन मांडवगढ में ग्रन्थकारो की उत्पनि कविवर मंडन और धनदराजका ग्रन्थागार ५० श्री विजयदेव सूरीश्वरको मांडवगढ पधारने के लिये जहांगीर बादशाहका आमंत्रण ५३ जहांगीर बादशाह से मुलाकात. ५८ मंडप दुर्ग में महात्माका चातुर्मास ५९ श्री सुपार्श्वनाथकी प्रतिमाकी उत्पत्ति और इसतीर्थकी प्रख्याति मांडवगढ मंडन श्री सुपाय जिन स्तवन ६१ मांडवगढनोर्थका दूसरा स्तवन मांडवगढ मे श्री प्रमद पार्श्वनाथका मंदिर ६४
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FRPRFQF
॥ श्री शान्तिनाथ प्रभोः पादपद्मभ्यो नमः ॥
श्रुत्वा गुरु गिरं पृथ्वी', धरोऽथ पृथु-पुण्यधीः चैत्यंन्यस्ताद्यतीर्थेशं, द्वा सप्ततिजिनालयम् शत्रुंजयावताराख्यं, रेदंड कलाशांकितम् । द्रम्माष्टादश लक्षाभि, मैडपान्तर चीकरत्
मांडवगढका मन्त्री
अथवा
पेथडकुमार का परिचय -:
परिचय
देवलोक के समान अवन्ति प्रदेश में नीमामके अन्तर्गत नान्डुरी नामक एक पुरी थी जिसमें ऊर्ध्व केशीय (dसवाल ) वंशका एक देदाशाह नामक १ पेथडकुमार. २ सुवर्ण.
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२
पेथडकुमारका परिचय.
गृहस्थ रहता था, उप्तको अवस्था * उस समय दारिज्य पीमित होनेसे की * दयाजनकथजब वह किसी तरह
अपनी दरिमावस्था को नहीं मिटा * सका तो उसने जंगल में लटकना शुरु की
किया, कहते हैं कि समय सदैव ए* कसा नहीं रहता, उसके नाग्यचक्र ने * पलटा खाया और दैवयोगसे उसे 'ना. गार्जुन' नामक योगीराज के दर्शन हुए। जब उस महात्माने उक्त देदा.
शाह को देखा तो वह प्रसन्न हुआ है और उसके चिन्होंसे परोपकारी पुरुष
जानकर उसको “ सुवर्ण सिद्धि” की • क्रिया बतलाई । देदाशाहने तदनुसार सुवर्ण बनाया और उस महात्मासे आज्ञा लेकर अपने घर लौट आया।
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मांडवगढका मन्त्री
योगीराज की आज्ञानुसार देदाशाह अपनी क्रिया से सुवर्ण बनाता और बहुत से दीन दुःखियों का दुःख दूर करने में सदैव तत्पर रहता था ।
जब उसकी दया और परोपकारिता की खुशबू फैलने लगी और राजा प्रजा को मालूम हुआ कि दाशाह सुख चैनसे रहता है और उसके पास बहुतसा द्रव्य है तब किसी बहाने से उस राजाने देदाशाह को कैद करलिया! जिससे उसको सुपत्नि बिमला सेठानी से उसका त्रियोग हुआ, परन्तु श्री स्थंजन पार्श्वनाथ के ध्यान के प्रजावसे वह आफत शीघ्रही नष्ट हो गई और देदाशाह व उसकी पत्नि सकुशल "विद्यापुर" चलेगये ।
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४ पेथडकुमारका परिचय. ___ एकसमय किसी कार्यवश देदाशाह
देवगिरि “ दौलताबाद ” गये, शुन जावसे कर्मों की निर्जरा के लिए उपाश्रयमें जाकर सर्व मुनिराजों का वन्दना करता हुया यह चिन्तवन करने लगा कि धन्य है ऐसे मुनिवरों को जिन्होंने संसार को असार जानकर बोमदिया और मोद की प्राप्ति
के लिए ऐसी कठिन तपस्या कर व रह हैं इसी तरह की अनेक प्रका. र रकी शुज नावनाएं नाता हुया देदा - सेठ श्रावकों के पास जा बैग। उस र समय वे श्रावक लोग एक पौषधशाला * बनवाने का विचार कर रहेथे, देदासेठी विचार करने लगा कि पौषधशाला बनवानेसे महान् पुण्य होता है, क्यों ।
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KKKK法次法术
मांडवगढकामन्त्री ५ कि यह साधुओं की बमी जुकानगीनी * जाती है वहां जाकर नव्य प्राणी व्रता दि क्रिया करते हैं । ददासेठ ने श्रावकोंसे प्रार्थना की कि कृपया यह पौषधशाला बनवानेकी मुळे आझादी
जिए, इसपर श्रावकोंमेंसे एक श्रावक र ने कहा कि सेवजी! तुम्हारा कहना * यथार्थ है परन्तु यह पौषधशाला तो संघ ही बनवाना चाहता है अतएव
आप ही को आदेश नहीं मिल स. कता! यह सुनकर देदासेठ बहुत * ही आग्रह करने लगा, इस पर एक
श्रावकने कहा कि शेठजी, अगर • आपका ऐसा ही आग्रह है तो सुवर्ण में
की पौषधशाला बनवादो ! सेठने इस में बात को शीघ्र ही स्वीकार करली, पर र
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+ ६ पेथडकुमारका परिचय.
गुरु महाराजने कलिकाल की विषमता दीखाकर समझाया कि सुवर्ण की पौषधशाला बनवाना उचित न होगा।
उसी समयम शहरम एक व्यापार केशर के ५०॥* थैले विक्रयार्य लायाथा उनको कोई लेने वाला नहीं मिलता
था इससे उक्त व्यापारी बमी चिन्ता * में था उसको सन्तुष्ट करने व नगरी * को अपयशसे बचाने के लिए देदासेठ
ने केशर के सब थैले खरीद लिये और * उनमेंसे ४ए थैले केशर के नरे हुए ही * चूनेमें मलवा कर सुवर्ण मयो पौषध. * शाला बनवादी और १॥ थैला केशर * का परमात्माकी पूजन के लिए तीर्थो की 1 में नेज दिया। देदासेठ की ऐसी ज
* ५०॥ गुण्यो.
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__ मांडवगढकामन्त्री दारता दखकर सबलोग आश्चर्य क* रने लगे जब यह समाचार राजाने * सुने तो वह नी बमा खुश हुआ और
उसने देदासेठ का सम्मान करके मूल्य के वस्त्रालंकारसे उसको : नित किया। ****************
- पुत्ररत्नकी
*
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TO प्राप्ती
************** किस्मत के आगे,
किसीकी कुछ नहीं चलता। ___ सब हो तेरे होते,
कि जब तकदोर है फिरती ॥१॥
सौजाग्यवश विमला सेठानीको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। माता पिताने जन्म
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济
८
पेथडकुमारका परिचय.
济
%
%
%
महोत्सव करके पुत्र का नाम “पेथम * कुमार” रक्खा। जब पेथमकुमार योग्य - वय का हुआ तो उसको व्याकरणादि ।
की उचित शिदाएं दिलाई गई, वही अपने बुद्धिबलसे कला कौशल्य में निपुण होगया तब उसका विवाह बन्धन एक सेठ की पद्मिनी नामक कन्यासे करवाया गया । पेथमकुमार व पद्मिनी आनन्दपूर्वक रहने लगे
इनके संयोगसे "कांफनकुमार' नामक * एक पुत्र उत्पन्न हुथा। एक समय ऐसा * था कि देदासेठ पुत्र विना तरसता
था अब तो पुत्र क्या, पौत्र का जी
सुख देदासेठ को प्राप्त हो गया। * कांऊन कुमार की लघु वयमें ही चम
कृत बुद्धि देख कर उसके पितामह ।
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मांडवगढका मन्त्री
ने उसको समग्र शास्त्रीय शिक्षा दि. लाना आरंभ किया | जांजनकुमार उचित शिक्षाएं पाकर विद्वान हो गया। थोमे ही समय में अपने कुटुम्ब को बोकर देदासे व उसकी विमला सेठानी स्वर्गस्थ होगये ।
-
पेमकुमार के माता पिता के परलोक वास हो जाने के बाद पूर्व स चित पाप कर्मों के उदय से उसकी आर्थिक स्थिति दिन बदिन गिरने लगी यद्यपि उसके पिता सुवर्ण सिद्धि की क्रिया जैसी संपत्ति उसको दे गया या लेकिन जाग्य चक्र के फिरने से उसकी वह क्रियाजी नष्ट हागई ! ऐसी हालत में जो पेथमकुमार अत्यन्त धैर्य धारण करके और अपने धर्म पर कटि
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सर
१०
पेथडकुमारका परिचय
बह रहकर इधर उधर मजदूरी कर अपना उदर पोषण करने लगा। ___एक समय सूर्य समान तेजस्वी तपगहाधिपती श्रीमौनाचार्य श्रोधमघोषसूरीश्वर विद्यापुर म पधार और बमे बमे धनाढय लोगों को धर्मोपदेश
देकर परिग्रह परिमाण व्रत धारण * कराने लगे, उस वक्त पेथमकुमार को
गुरुवन्दन करते हुवे देख कर वहां बैठे में
हुवे श्रावक लोग उसकी हालत पर * हंसने लगे और सूरिजी से प्राथना
करने लगे कि स्वामीनाथ! “लाख वर्षे लदाधिपती और कोमवर्षे कोटीध्वज” ऐसे पेथमकुमार को परिग्रह की
परिमाण व्रत क्यों नहीं देते? इस पर - गुरुमहाराज ने कहा कि हे नाग्यवानो!
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मांडवगढकाम-त्री
११ ।
* लदमी का गर्व कनी नहीं करना चा
हिये क्योंकि लदमोका स्वनाव स्थिर नहीं है यह चंचलास्त्री के समान एक को डोम कर दूसरे के पास जायाही करती है इस लिये अपने वैनवका मद किसीको नहीं करनाचाहिये ऐसा कह कर गुरुमहाराजने पेथमकुमार को कहा कि नाई ! तुम पञ्चम अणुव्रतको ग्रहण करो यह व्रत तुमको इस लोक और पर लोक में हितकारी होगा इत्यादि। यह उपदेश सुन कर पेथमकुमार बीसहजार रुपयों का परिमाण करने लगा तब उसके हाथ में अहीर
अबी रेखाएं दिखपमने से आचार्य * महाराज ने पांच लाख रुपयों का परि
माण व्रत करवाया और कहा Eि
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१२
पेथडकुमारका परिचय.
श्रावक ! तू किसी तरहका खेद मत* कर, ये हंसने वाले लोग अज्ञानी हैं
लदमी कण नर में राजा को रंक और रंक को राजा बना देती है तेरा नाग्य चक्र तुझको शिघ्र ही अब अवस्था में लाने वाला है ऐसा वचन सुन कर
पेथमकुमार गुरुमहाराज को वन्दना * कर कर हर्षित होता हुवा अपने घर
की तरफ जाने लगा और कहने लगा
कि संसार सागर में फंसे हुये प्राणियों , २ को ऐसे सद्गुरु महाराज हो तार स- श्री
कते हैं ऐसे निःस्वार्थ गुरुकी जगत् में से - बहुत ही आवश्यकता है कितनेक - अनिमानी मनुष्य गुरु को नहीं मानते हैं।
परन्तु वास्तव में ऐसे प्राणी, दया के योग्य हैं इत्यादि विचार करता हुवा ।
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ARTANARTAIRMATHAK
मांडवगढकामन्त्री
१३
* पेथमकुमार अपने घर पर पहुंच गया।
देशान्तर गमन. स्थान मुत्सृज्य गहन्ति । सिंहाः सत्पुरुषाः गजाः ॥ तत्रैव निधनं यान्ति । काकाः कापुरुषा मृगाः ॥॥
सिंह सत्पुरुष और हाथी एक स्थान को त्यागकर स्थानान्तर चले जाते हैं
ऐसा विचार करके पेथम सेठ सपरि* वार मालवा प्रान्त में जाने के लिये
रवाना होगया, कितनेक दिन बाद
इधर उधर घूमता हुवा वह मांगवगढ र के दरवाजे पास जा पहुंचा शहर की ही
शोला देखकर उसको बहुत आनन्द भ प्राप्त हुवा और शुन्न शकुन लेकर न
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* १४ पेथडकुमारका परिचय. * गरमें प्रवेश किया व व्यापार निमित्त र दुकान खोल कर धंधा करने लगा। ___ एक दिन घी बेचनेवाली उसकी पुकान पर आई और जाग्यवश उससे उसको चित्रावेल की प्राप्ति हुई उसके ही
प्रनाव से पेथम सेठको उकानमें अ* खूट घी जरा रहने लगा यह कौतुक
देख कर वहां के राजा ने पेथम कुमार व उसके पुत्र फांझन कुमार को मंत्रीपद देदिया। __ एक वक्त राजाको आज्ञा लेकर पेथम कुमार सपरिवार तीर्थयात्रा करने के लिये चला, पहले जीरावला पार्श्वनाथ की यात्रा करके आबूके पहामी
पर चढा वहांपर श्रीआदिनाथ नग2 वान की यात्रा कर के औषधियों की ।
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___ मांडवगढकामन्त्री १५ प्राप्ति के लिये जंगल में घूमने लगा आखिरकार उसको एक बूटी की प्राप्ति की होने से उसका मनोरथ सफल हुवा ।। 2 उस बूटी के प्रत्नाव से वह लोह का
सुवर्ण बनाने लगा जब उसने बहुतसा सुवर्ण बना लिया तो उस सुवर्ण को ऊंटो पर लदवा कर अपने स्थान मा. मवगढ को भेज दिया और फिर श्री ऋषनदेव जगवानके मंदिर म जाकर विचार करने लगा कि सुवर्ण के लोन
से मैने षट्काय जीवोंकी जो विराधना * की है उसके लिये मुळे धिक्कार है, भ
अपने स्वार्थ के लिये निरपराध प्रा. णियोंकी हिंसा करना महान् पापबन्ध * का कारण है खैर जो होना था सो
हो गया अब मैं अपने सब सुवर्ण को , H AIRAMAYADEMY
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HAMARITRINAKERAYAK
१६ पेथंडकुमारका परिचय. तिर्थोछार व गरीबों के वास्ते खर्च करुंगा इसी प्रकार के विचार करता हवा पेथमकुमार अपने घर पर आ कर गरीबोंको दान देने लगा।
गुरु भक्ति।
एक समय माधव नाम का नाट पेथमकुमार के पास आ कर बधाई देने लगा कि हे स्वामिन् ! इस लोक और
परलोकमें सुख देने वाले जिन सङ्गुरु में महाराज का आपने आश्रय लिया है
वे ही गुरु महाराज श्री धर्मघोषसूरि की * थोमे दिनों में यहां पधारेंगे यह स* माचार सुनकर पथमकुमार को बहुत
ही आनन्द प्राप्त हुवा, और ऐसी ब
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मांडवगढकामन्त्री
१७ ।
* धाई देने वाले उस माधव नाट को
सोने की जोन, व हीरेके दांतों की पंक्ति, बहुमुल्य वस्त्र, पांच घोमे, और एक अच्छा गांव पारितोषिक में दिया, इसके बाद बहत्तर हजार प्रव्य खर्च करके गुरु महाराज का बमा नारी प्रवेश महोत्सव कराया। ___ एक वक्त पेथमकुमार हाथ जोमकर आचार्य महाराजसे प्रार्थना करने लगा कि हे स्वामिन् ! मैने जो आपके पाससे परिग्रह परिमाण व्रत ग्रहण किया है उससे मेरे पास बहुत अधिक
धन हो गया है उसको किस कार्य में 3 * लगाना चाहीये कि जिससे मेरा कट्याण हो। उसकी यह प्रार्थना सुन आचार्य महाराज ने फरमाया कि हे ।
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१८ पेथडकुमारका परिचय. मंत्रीवर ! वह लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती इसकी तीन गति अवश्य होती है यानि दान, लोग और नाश । अतएव इसको मंदिर और प्रतिमाए बनाने में व स्वधर्मीवात्सल्य में व्यय कर देना , उचित है क्योंकि इन कार्यों में जो
पुण्योपार्जन होता है वह केवलज्ञानी र लगवान हो जान सकते हैं । इत्यादि की
समुपदेश सुनकर पेथमकुमारने मांगवगढ में अट्ठारह लाख रुपये खर्च कर कर देरियों सहित श्री आदीश्वर जगवान का मंदिर बनवाया और जसका श्री शत्रुञ्जयावतार नाम रक्खा
और पृथक र स्थानों पर ७३ जिनालय में बनवाए उनमें से कितनेक के नाम इस प्रकार है १ श्री सिफाचलपर श्री शां.
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मांडवगढकामन्त्री
१९
॥
तिनाथ स्वामीका मंदिर. २ ओंकारपुर में. ३ शारदापत्तन में. ४ तारापुर में ही ५ दर्जावती में. ६ सोमेशपत्तन में 3 मान्धाता में. ७ धारानगरी में. ए नागनगर में. १० नागपुर में. ११ नासिक में. १५ बमोदे में. १३ सोपारक में १४ रतनपुर में. १५ कोरमागांव में. १६ करेमातीर्थ में. १७ चंद्रावती में. १७ चि. तोम में. १५ चारूप में. २० ऐन्योपुर (इन्दौर) में. २१ चिक्खल में. २५ बि.
हार में. २३ वामनस्थली में. २४ जेपुर * में. २६ उौन में. २६ जालन्धरनगर C में. २७ सेतुबंध में. २७ पशुसागर म.
ए प्रतिष्ठानपुर में. ३० वर्धमाननगर । * में. ३१ पर्ण विहार में. ३५ हस्तिनापुर में 4 में३३ देवालपुर में. ३४ जोगपुर में.
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* २० पेथडकुमारका परिचय.
३५ जेसंगपुर में. ३६ लिम्बपुर में. ३७ * स्थुरादरि मे. ३० सलवणपुर में. ३ए
जीर्णपुर्ग (जुनागढ) में. ४० धवलपुर में (धोलका) में.४१ मंकोडीपुर में. ४२ विक्रमपुर में. ४३ देवगिरी (दौलताबाद) में. इत्यादि अनेक स्थानों में सुवर्ण के कलशध्वजा दएम सहित जिनालय ब नवाकर पृथ्वी को विनूषित की नल समय उन वे जिनालय पर फरकता हुई ध्वजा पताकाए अपने हाथों से भव्य जीवों को स्वर्ग लदमो प्राप्त करने के लिये थामन्त्रण कर रही थीं।
ब्रह्मचर्य व्रत।
एकदिन पेथमकुमार अपनी स्त्रीको । कहन लगा कि हे प्रिया !इस दुनिया ,
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मांडवगढकामन्त्री
२१
में चतुर्थव्रत के समान दूसरी वस्तुओं * में कुछ जी सार नहीं है इसके प्रजाव ६ से कुसंपको करानेवाले नारदऋषी क्लेश - को निवारण कर मोद पासके, सुद• र्शन सेठ की सूलीका सिंहासन होग* या । इस लिये इस अपार संसार समुप
को तैरने के लिये यह व्रत नौका समान है इसके प्रत्नाव से देवता जी, नमस्कार करते हैं । अपना जीवन द णिक है इस लिये तेरइच्छा हो तो मैं शीलवत धारण करूं । एसा सुनकर उस पवित्र हृदयाने प्रार्थना की कि हे स्वामिन् ! आप आनन्द से यह उत्तम व्रत अंगीकार करो मैं अंतराय मालने
वाली नहीं हूं । पती पत्नी की शंका ही * निवारण होनेपर योवन रूपी पहाम में
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+ २२ पेथडकुमारका परिचय.
को ठगेकर मार कर और परस्पर के प्रेम * स्नेह को तिलाञ्जली दे कर बत्तीस वर्ष ही * की युवावस्था में दोनों महानुनावों में हर
चतुर्थव्रत अंगीकार कर लिया। और र इस व्रत का एसी सुन्दर रीति से पा. लन किया कि उनके वचन से तोक लेकिन पेथमकुमार के वस्त्र के प्रनाव
से ही लीलावती राणीका महान रोग * नष्ट हो गया जो कि लाखों रुपये के
खर्च करने और अनेक मंत्र जंत्र जमा
बूटी आदि विविध उपचारोंसें जी नष्ट # नही होताथा । एसे ही राजा का
पटहस्ती पिशाच लगने से मृत्यु तुल्य होगया था वह नी मंत्री के वस्त्र -
ढाने से अच्छा होगया इस अद्भुत च- मत्कार को देखकर राजाने पांच वस्त्र,
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*****
मांडवगढकामन्त्री
२३
सहित लक्ष द्रव्य से मंत्री श्वरका सन्मान किया और इससे मंत्रीश्वर के शोल की महिमा सारे शहर में फैल
गई ।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ
राज्य के अन्दर सात व्यसनों का निषेध ।
Vadodarava
द्युतं च मांसं च सुरा च वेश्या पापर्धिश्चोरी परदारसेवा ॥ एतानि सप्त व्यसनानि लोके घोराति घोरं नरकं नयंति ॥ १
एक दिन मंत्री श्वरने राजा से प्रार्थनाकी की आप अपने देश में उपर दिखलाए हुये व्यसनों का सेवन करने वालों को हुकुम के जरिये रोक करावें तो बहुत उपकार होगा और खास करके इन सात व्यसनों की
भ
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२४ पेथडकुमारका परिचय. रोक पर्व तिथियोंकोतो अवश्य ही * होनी चाहिये यानि पुज, पंचमी, श्री है अष्टमी, एकादशी, और चतुर्दशी के ।
रोज सप्तव्यसनका कोई सेवन न करे - * ऐसा आज्ञापत्र प्रकट होना चाहिये की
क्यों कि व्यसन सेवन से नल राजा तथा पाएमव जैसे महान पुरुषों को जी बहुत दुःख हुवा है। यह प्रार्थना सुन कर और इसको उचित समज कर राजा जयसिंह देव ने घोषणा द्वारा सप्तव्यसनों का सेवन बन्द करवा दिया।
पेथड़कुमार की तीर्थयात्रा.
DON -ROMHAR __ एक समय पेथमकुमार विचार की रने लगा कि जगत में मनुष्य जन्म
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मांडवगढकामन्त्री wwwwwwwwwwwwww
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२५ * पा कर अखूट लदमी सम्पादन की , * इससे कुछ कल्याण नहीं हुवा, न जाने * कल क्या होने वाला है इसकी कुछ * खबर नहीं पड़ती। मिट्टी के बर्तन
जैसी इस देह का क्या जरोसा है अतएव मनुष्य जन्म सार्थक करने के लिये तीर्थ शिरोमणि श्री सिझाचल• जी की यात्रा करनी चाहिये । एसा निश्चय करके पेथमकुमार ५५ देरासरों
सहित बमा संघ निकाल कर यात्रा * करने चला। वहां पहुंच कर श्री ऋ. • पनदेव स्वामी के दर्शन प्रजन से अ
पनाजन्म सफल किया और खूब दान , * पुन्य करके श्री गिरनारजी जा पहुचा ) र वहां पर योगिनीपुर निवासी, अला.
उदीन बादशाह से सन्मानित पूर्ण ।
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___२६
पेथडकुमारका परिचय.
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* नामक अग्रवाल दिगम्बर श्रावक बमा
संघ लेकर आया हुवा था। दोनों संघ
के लोग पर्वत पर चढने लगे उस स. * मय दोनों के आपस में तीर्थ के वावत र वाद विवाद होने लगा। एक पद,
अपना तीर्थ होने का प्रमाण बतलाने लगा तो दूसरा पदनी अपनी नजीरें देने लगा। तब एक वयोवृक्ष पुरुष ने क्लेश निवारण का एक तीसरा रास्ता दिखला कर कहा कि तुम दोनो * संघ पती साथ साथ पर्वत पर चढो
और इन्छ माला पहनने के वक्त सु. की वर्ण अव्य की बोलो बोलो जो अधिक * सोना देवे उसी का यह तीर्थ समका
जाय गा। यह बात दोनो संघ पतियों ने मंजूर करलो क्यों कि शुरवीर पुरुष
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मांडवगढका मन्त्री
शस्त्र से, पंकित लोग शास्त्र से, कायर हाथों से, स्त्रियां गालियों से और वैश्य लोग पैसे से लगा करते हैं। इस फैसले से सब लोग बने हर्ष से रैवन गिरी पर चढ़ने लगे और बाल ब्रह्मचारीचक्रचूमामणि श्री नेमिनाथ जगवान को ट्रंक पर पहुंच कर दर्शन पूजन का लाभ प्राप्त किया। जब इन्द्रमाला पहिनने का समय निकट आया तब लोग इस दृष्यको देखने के लिये उत्सुक हो गये। पहले पहल मंत्री श्वर पेमकुमारने पांच धमी सोने से बोली बोलना शुरु किया फिर परस्पर बोली बढाते बढाते पेथमकुमार बप्पन धमी सुवर्ण देने को तैयार हो गया, उस समय दिगम्बर संघवीक
**
२७
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२८ पेथडकुमारका परिचय. अधिक बोली बोलने की हिम्मत नही हुई। तब सबने मिल कर इन्द्रमाला पेथमकुमारको पहिनादी और उक्त तीर्थ श्री श्वेताम्बर संघ का स्वीकार कर लिया।
मंत्रीश्वर ने इन्माला से अपने कंठको अलंकृत करके अपना जन्म सफल माना सर्वत्र मांगलिक बाजेबजने लगे और संबके हृदय हर्ष से ५
आनन्दित हो गये। अन्तमें पेथमकुमार जन्म जरा की पीमाको मिटाने वाली आरती उतारकर और
गिरनार तीर्थपर श्वेताम्बर संघका 3 * स्वतंत्र अधिकार सिफ करके पर्व * तसे नीचे उतरा और यह वि.
चार करके कि देवऽव्य चुकानेमें ।
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माडवगढकामन्त्री
२९
विलम्ब करने से बहुत दोष लगता है अतः अपनी प्रतिज्ञानुसार बप्पन धमी सोना जाएारमें देकर देवगुरु की जक्ति पूर्वक स्वधर्मी वात्सल्य करनेके बाद तपस्याका पारणा किया। उसी समय दूसरे धर्मोन्नतिके निमित्त जी ११ लाख रुपये १ वहा पर पेथमकुमार व्यय करके मामवगढ जाने के लिये रवाना हो गया ।
(४) " मांडवगढनो मंत्री पेथड कुमार" नामक गुजराती पुस्तक में "वली रूपाना टकाओनी ११ लाख घडिओं बीजी पण त्यां खरचता हुवा " इस माफिक छपा हुवा है यह भूलसे लिखा गया हो ऐसा मालुम होता है ।
(लेखक)
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३०
पेथडकुमारका परिचय
ज्ञानभक्ति और ज्ञानमंदिर ।
एक समय बहुमूल्य वस्त्रालङ्कारोसे विनूषित प्रातःकाल के वक्त मंत्रीश्वर ) पेथमकुमार घोमेपर सवार होकर बमे ५
आमम्बर से गुरु वन्दना करने के लिये पोशधशाला में गया। नक्तिपूर्वक गुरु * महाराज को नमस्कार करके गुरु महाराजका व्याख्यान सुनने लगा, उस समय गुरुमहाराज जगवती सूत्रका कथन कर रहे थे उस कथन में वारं वार श्रीगोतमस्वामी का नाम सुनकर
पेथमकुमार कहने लगा कि हे स्वामिन्! * * मेघमाला देखकर जैसे मोर नाचता
है वैसे ही श्रीवीर प्रजुकी पवित्रवाणी सुनकर मेरा मन बहुत ही रञ्जित ।
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माडवगढकामन्त्री ३१ होता है अतएव में इसको सम्पूर्ण * सुनूंगा, एसी प्रार्थना करके पांच दि
नोंमें सम्पूर्ण श्रीनगवती सूत्र ( विवाह र प्राप्ति) सुना उसमें श्री गौतमस्वा.
मीका नाम ३६ हजार वक्त आया उसपर एक एक करके ३६ हजार सुवर्ण मोहर चढाकर ज्ञानको अपूर्व नक्तिको।
इसी तरह नृगूकच्छ (जरूंच) आदि शहरा में बमे बमे ७ सरस्वती नएमार खोल कर उनमें अनेक ग्रन्थोंका सं. ग्रह कर दिया।
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पेथडकुमारका परिचय.
*
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पेथडकुमारकी प्रभुभक्ति।
************** * धर्मशिरोमणि सुश्रावक पेथमकुमार में
जैसे राज्य कार्य में तथा व्यापार कार्य
में निमग्न है वैसेही परमात्मा की त्रि. * काल पूजन करने में जी कली प्रमाद
नहीं करताथा । एक वक्त मध्यान्ह समय, केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी के क्रोमागृह समान, गृह चैत्यालय में उक्त मं. त्रीश्वर प्रनु पूजन करके अङ्गरचना । कररहा था, इतने में सारङ्गदेव राजाकी फौजके मांझवगढ पर चढाने के समाचार मिले, उसी समय जयसिंह देव राजाने मंत्रोको बुलानेके लिये एक सुनटको नेजा परन्तु मंत्री नहीं मिला तब राजाने दूसरा सुजट नेजाम
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माडवगढकामन्त्री ३३। उसको मंत्री की पत्नीने कहा कि अनो मंत्रीश्वर देवपूजन में रुके हुवे हैं इतने में फिर तीसरा आदमी आया और उसने दासीके साथ प्रार्थना करवाई कि इसी समय अत्यन्त आवश्यकीय कार्य आजानेसे मंत्रीश्वरजी को महा. राज याद फरमा रहे हैं इस पर पद्म. नीने अमृत जैसे वचनोंसे उतर दिया कि लाई अजी तो दोघमीको देर है।
राजाकी आझाका मंत्रीश्वरने पालन नहीं किया और प्रनु नक्ति में लयलीन रहा मगर इस पर राजा क्रुक नहींहुवा और चढाई करनेका मुहूर्त । निकट होनेसे राजा स्वयं मंत्रोश्वरके ही
घर पर आगया उस समय देव विमान * जैसे सुन्दर मन्दिर में पेथमकुमार श्री
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३४
पेथडकुमारका परिचय.
पाश्वनाय प्रजुकी अंग रचना कररहा था और एकमाली पेथमकुमारको अङ्ग रचना के लिये पुष्प देता जा रहा था। उस मालीको उठा कर राजा, धी. रेसे मालीकी जगहपर बैठकर मंत्रीको फूल देने लगा परन्तु प्रज्जुनक्ति में मग्न
होनेसे मंत्रीश्वरको कुब जी खबर नहीं * पमी । लेकिन अनुक्रमसे जैसे चाहिये की
वैसे फूल न मिलने से प्रधानने मुंह फिरा कर देखा तो राजा साहब दीख पमे ! मंत्रीकी देव जक्तिसे प्रसन्न हो कर राजाने कहा कि घबरा मत स्थिर ही चित्त से पूजा करो मैं नीचे बैठता हूं ऐसा कहकर राजा उचित स्थानपर बैठ गया। मंत्री पेथमकुमार जी अङ्ग रचनाका कार्य सम्पुर्ण करके राजाके
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मांडवगढकामन्त्री
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पास पहुंचा और नमस्कार करके उ. चित आसन पर बैठगया । यद्यपि राजासे मिलने में मंत्रीको बमी देर ।
लगी तो नी राजा नाराज न होकर र खुश होकर कहने लगा कितुम्हारी
प्रनु नक्ति देखकर मुजे अत्यन्त थानन्द हुवा। ___ यह सब पुन्य का ही प्रजाव है शास्त्रमें जी कहा है कि प्रीतिपात्र स्त्रीका, चतुर मित्रका, निर्लोनो सेवकका, और निरन्तर प्रसन्न रहे ऐसे स्वामीका मिलना विना पुण्योदय के ।
नहीं हो सक्ता है । अब राजा तथा 3 * मंत्री विचार करने लगे कि शत्रुनेजो में * चढाई की है उसका मुकाबला करना है
या संधि करना इस बात का निर्णय
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३६ पेथडकुमारका परिचय. * हो जाने के बाद, लमाई की तैयारी
करके फौजको रवाना करदी। थोमे ही बक्त में शत्र सैन्यको पराजय कर कर जयसिंहदेव की सेना, विजयपताका फरकातो हुई वापिस आई।
CAMER
RAKH**** * कलशारोपण।
___उपदेश सप्तति नामक ग्रन्थके पेथम अधिकार में लिखा है कि सुविख्यात पेथमकुमार मंत्रीने श्री मंगप
दुर्ग (मांमवगढ) के जिनालयोंपर अपने * प्रतापके जैसे उज्ज्वल सुवण के ३०० में * कलश चढाये.
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माडवगढकामन्त्री ..
३७
यः श्री मंगप पुर्गस्थ जिन चैत्य शतत्रये ॥ अस्थापय स्वर्ण कुम्नान् स्व प्रतापानिवो ज्वलान् ॥१॥
ORDCRISPACPATROOTOAADATDOOD
पेथडकुमारका स्वर्गवास। 30000000000manan0000000 पेथमकुमार अपने शरीरकी अवस्था देखकर अपना अन्तिम समय निकट समऊकर शान्ततासे परमात्मा का ध्यान करने लगा, संसारको असारता विचारने लगा । वास्तवमें यह
शरीर पाणी के परपोटे के समान न* श्वर है इस लिये किसी के साथ वैर
नाव न रख कर सर्व जीवोंसे क्षमा , याचना करके श्री अरिहंत नगवानका
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३८ पेथडकुमारका परिचय. ध्यान करता हुवा, समाधियुक्त, इस * असार संसार को बोमकर स्वर्गलोक
को पेथमकुमार प्रयाण करगया।
- झांझन कुमार मंत्रीकी 4) तीर्थयात्रा।
पिताजी के वियोगसे कांऊनकुमार अनेक प्रकारके विलाप करने लगा। बमेबसे अमीर उमराव तथा राजा, वि विध प्रकार से कांऊनकुमार को शोक
निवारण के लिये आश्वासन देते थे । * पर जिसका हृदय पिताके विरह से , * विव्हल हो गया है ऐसा कांफनकुमार ही व्याकुलतासे अपने दिन व्यतीत करने लगा। इस अर्से में एक समय जांऊ
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*HERPHARMIRERAPRATHMANTRA
मांडवगढकामन्त्री ३९ * कुमार अपने चित्त की शांति के लिय
गुरुमहाराजके पास उपदेश श्रवण * करने के लिये वन्दना करके बैठ
गया । गुरुवर्य ने नी समयोचित उप* देश देना प्रारम्न किया इससे कांऊन * कुमारका शोकरूपी दावानल शान्त
होगया तब गुरुमहाराज ने फरमाया कि हे मंत्रीश! संघको नक्ति करनेसे सम्यक्त्व निर्मल होता है इतना ही नहीं किन्तु इससे तीर्थकर नाम कर्म • का नी बन्धन होता है ऐसे संघ का * अधिपती होना बमा पुर्लन है लेकिन
पूर्व पुण्य के उदय से ऐसा सुयोग * मिल सकता है इत्यादि गुरु महाराज की
के सऽपदेश से फांऊनकुमारने विक्रम । संवत १३४७ माघ सुदी ५ के रोज र HARMATHAKHABAR
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पेथडकुगरका परिचय.
* शुभ मुहुर्त में तीर्थयात्रा करने के लिये
२॥ढाइ लाख मनुष्योंके साथ प्रयाण किया। उस वक्त अनेक वाजिन्त्र बजने
लगे चारों तरफ हाथियों की गर्जना र * होने लगी,यो हिनहिनाट करने लगे, में
नाट चारण बिरदावली बोलने लगे, यात्रियों की ललनाए धवल मंगल के । गीतगाने लगी। इसी तरह अनेक प्रकारका संघ में आनन्द होने लगा इतनेमें तपागहाधिपति श्री धर्मघोष सूरि महाराज जी सपरिवार संघमें पधार गये।
राजाने जी रक्षा के लिये सुजट । * यादि संघके साथ लेजे थे। ऐसे उ
त्तम जलूसके साथ संघ आनन्दपूर्वक से रवाना होकर करहेमा गांवमें पहुंचा।
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मांडवगढका मन्त्री
કર
वहां क्षेत्रपाल के उपद्रवको हटाकर जिनालय का जिर्णोद्धार कराकर सात मंजिलवाला जिनेश्वर देवका प्रासाद बनवाया। वहां से अनुक्रमसे सघ आबूराज पहुंचा। संघवी ने मोतियों के स्वस्तिक प्रमुख से जिनेश्वर देवकी
जक्तिकी । आबू की यात्रा करके पाचनपुर, पाटन, आदि नगरों में दो कर कितने के दिनों में संघ निर्विघ्नता से श्री शत्रुञ्जय तीर्थ को देखने लगा यानी रसे गिरीराज के दर्शन करने लगा । उल रोज वहीं पर पमात्र माल कर मं
श्वर ११ * मूढा गेहूं क] ( लाल रंग को )
"माण्डवगढनो मंत्री” नामक पुस्तक के २३२ वें पृष्ट में " संघ अणहिल्लपुर पाटन में आया, वहां यात्रा करके अनुक्रम से शत्रुञ्जय पर्वत पर आया, वहां एक बड़ा स्वामी वात्सल्य किया ***
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ર पेथंडकुमारका परिचय.
लापसी बनवाकर संघ में बांटने के निमित्त से तीर्थदर्शन का आनन्द प्रदर्शित कराने लगा ।
यहां से रवाना हो कर पवित्र श्री संघ वाजिन्त्रादि नादयुक्त नाटक और धवल मंगल के बने वावके साथ पा
लोताने जा पहुंचा। वहां श्री सिद्ध गिरीक बजे आनन्दसे यात्रा करके श्री गिरनारजी की यात्राकी | जांऊन कुमार ने सिद्धाचलजी से रैवत गिरी तक ५६ धम। सोनेकी लम्बी ध्वजा
११ मूंढा गेहूं की लापसी बनाई - अनेक प्रकार की मन गमती रसोई से सबको जिमाए, भाव पूर्वक यात्रा करके पालीताने आया " इस पकारसे जो लिक्खा है वह सम्भव मालुम नहीं होता क्यों कि ११ मूढा लापमी से २ || लाख मनुष्य नहीं जोम सकते (देखो मूल ग्रन्थ ) - लेखक.
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मांडवगढकामन्त्रा४३
* चढाई इसी प्रकार नाना प्रकार के शुज * कृत्यों से अपना जन्म सफल करके वहां
से रवाना होकर वणथलो होते हुवे कर्णावती के पास मुकाम किया।
HEREEEEEEEEEEEEEEEEEEEER ॐ सारंगदेवराजाका मन्तव्य
अत्रक
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कर्णावतीके राजा सारंगदेवने नी नगर के पास मांमवगढ के संघके पमावकी रचना तथा मंत्री के उदार
दिल का वर्णन एक नाट के मुंह से ही * सुनकर संघके मुकाम पर जाने का *
विचार किया। तदनुसार राजा रवाना
हो कर संघके पमाव की तरफ गया। * मंत्रीश्वरको राजाके शुनागमन को ख
बर मिलने से अपने पमाव को बावटे ।
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४४ पेथडकुमारका परिचय. तोरण आदि से श्रृंगार कर स्वयं रा. * जाकी पेशवाई में गया और बमे स
न्मान के साथ राजा को अपने तम्बू में पदार्पण करवाया उस वक्त मंत्रोको पत्नी ने राजाको मो तयों से बधा कर सिंहासन पर बैठाया। राजा, कांऊन कुमार आदिका स्नेह नाव से आनन्द मंगल पूबने लगा इस अवसर पर संघ के बम बमे श्रावकों ने राजा को लद अव्य को नेट की। “ तृणं लघु तृणात्तलं
तूलादपि हि याचकः” इस वाक्य के अनुसार वह राजा अपना हाथ, किसी के हाथ के । नोचे नहीं रखताथा इस कारण से मंत्री जब राजाको ताम्बुल देने आया तब राजाने उसके हाथ से बोमा ऊपट
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मांडवगढकामन्त्री
४५
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~
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• लिया, वह देख कर मंत्री चकित हो
गया। मंत्री ने राजाका अनिप्राय स. मऊ कर लोगों को दृष्टि के सामने कपूर लाकर एक दम राजा की पसली को शिखा पर्यन्त नर दी। कपूर गिरने लगा तब राजा ने अपना हाथ नीचे किया उसी दम लोगों का जय जय शब्द होने से सामन्तों के साथ राजा नी हंसपमा इस कौतुक को देख कर सब लोग मंत्रीश्वर के धैर्य
और बुद्धि बल का यशोगान करने लगे * यह कार्य किसी ने नहीं कियाथा और * मंत्री ने कर दिखाया इससे राजाने * प्रसन्न हो कर इलित वस्तु मांगने के लिये मंत्रीश्वरको कहा, तब मंत्रीने
प्रार्थना की कि आपकी आज्ञानुसार KHERIYARERNARIYARTISMENT
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४६ पेथडकुमारका परिचय.
आप जैसे कल्पवृक्ष और अविचल * वचन पालने वाले स्वामोसे किसी न.
चित मोके पर अर्ज करूंगा।
NEERA
ENABHARATI कर्णावती में प्रवेश और ९६ राजा
ओं कबंधन मुक्त होना।
___ उपरोक्त घटनाओं के पश्चात् राजा
सिंहासन से उठ कर सर्व संघवियों की * को हाथियों पर बिठा कर महोत्सव में पूर्वक अपनी नगरी में ले गया।
एक समय मंत्रीश्वर को मात्रुम हवा कि सारंगदेव राजाने ए राजाओं को कैद किये हैं यह जानकर उनको । बन्धन मुक्त कराने का निश्चय किया। उचित अवसर पाकर मंत्रीश्वर ने
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KHAREHIKA
माडवगढकामन्त्री ४७ है। राजा से प्रार्थना की कि मुज को बापने जो वचन दिया है वह पूरा करने में के लिये अब मैं याचना करता हूँ।
तब राजाने फरमाया कि खुशो से क * मंत्री ने कहा कि मैं इतना ही मांग
ता हूं कि कारागृह में जिन ए६ राजा
ओं को आपने कैद कर रखे हैं उनको * मुक्त कर दिये जाएं । यह सुन कर
यद्यपि राजाकी श्वा उनको बोमने को
नथो तो नी मंत्रीश्वर की प्रार्थना * स्वीकार कर उनको बोम दिये।
सर्व राजाओं को फांऊन कुमारने एक एक घोमा और पांच पांच वस्त्र अर्पण कर के अपने अपने नगर को विदा कर दिये । इस कारण से पूजनीय महाजन ने मिल कर मंत्रीश्वर ।
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पेथडकुमारका परिचय
को " राजबन्दी बोटक " इस नामकी उपाधी प्रदान की ।
४८
स्वदेश में शुभागमन ।
OOOOC
कितनेक समय तक सारंगदेव राजाकी शीतल छाया में रह कर आज्ञा प्राप्त करने के बाद संघ स्वदेश की तरफ रवाना हुवा | अपने अद्भुत कार्यों से सब को आश्चर्य चकित करता हुवा और द्रव्य की वृष्टी बरसाता हुवा संघ पती ताम्रावती (खम्जात) आदि नगरों में श्री स्थंजन पार्श्वनाथ महा राज आदि जिनेश्वर जगवान की यात्रा करता हुवा मांगवगढ पास जा पहुंचा।
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मांडवगढकामन्त्री
४९।
राजा तथा नगर निवासियों ने र संघ के शुनागमन को खबर सुन कर
घर घर तोरण पताकाए बंधवाई और
बमे आनन्दके साथ प्रवेश महोत्सव * कराया गया। सवारी में राजा के साथ
हाथी पर चढ कर मंत्रीश्वर हर्षनाद - सहित संघयुक्त अपने घर जा पहुंचा * और अन्त में सब का उचित सत्कार
कर सबको अपने अपने स्थान पर बिदा किया और मांमवगढ के सर्व ज्ञाति के लोगो को जोजन कराकर और सं. घको नक्ति करके राजा का उत्तम स. स्कार करने के बाद आद्यनार मान - कर मंत्रीश्वर अपने दिन धर्म ध्यान * में व्यतीत करने लगा।
HUMIKAAMKARANAYA
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५०
पेथडकुमारका परिचय.
*******
SEXSRoRCOSMES
मांडवगढ में ग्रन्थकारों के
की उत्पत्ति । RAKER****** **
श्री विज्ञप्ति त्रिवेणी को प्रस्तावना में ग्रन्थकारों की बाबत निम्नानुसार लिक्खा है
RESSESERESEREEEEEEEEEEET..
कविवर मंडन और धनदराजका
ग्रन्थागार ।
भERSEEEEEEEEEEEEEEERE
se
__ मालवा प्रान्त में मांमवगढ (मंग
पषुर्ग) इतिहास प्रसिद्ध स्थान है यह * शहर औरंगजेब के समय तक तो बमा
आबाद और मशहूर था परन्तु आज तो उसक वैसा ही दशा है जैसीकी
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माडवगढकामन्त्री ५१ * गुजरात प्रान्तके गन्धार बंदर को।मां * मव या मांमू जिस समय उन्नति के शिखर पर चढा हुवा था उस समय वहां पर जैन धर्मकी नो बमी उन्न. तिथ। उस समय यह स्थान जैन धर्म में मालवा प्रान्त का केन्द्र गिना जाता था। बमे २ धनाढ्य और स. त्ताधिकारी जैन वहां पर रहा करते थे। कहते हैं कि वहां पर उस समय जैनोयों की कई लाख को संख्याथी। बहुत से क्रोमपती और लदाधिपतो जैन इस शहर की शोजा को बढाते थे।
कहा जाता है कि उस समय इस शहर * में एक ली गरीब श्रावक नहीं था।
जो कोई दारिपीडित जैन बहार से की आताथा तो शहर के श्रावक लोग
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HTTRANSLATION * ५२ पेथडकुमारका परिचय.
एक एक रुपया उसे सहा यतार्थ देते K थे और इससे आगन्तुक मनुष्य अबो सम्पत्तिवाला बनजाता था।
जैन इतिहासके देखने से पता लगता है कि मंत्री पेथम, फांऊन, जा. वम, संग्रामसिंह आदि अनेक श्रावक यहांपर हो गये हैं जो विपुल ऐश्वर्य
और प्रजूत-प्रजुता के स्वामी थे। - इस प्रकरण के सिरे पर जिन दो ज्राताओं का नाम लिखा हुवा है वे जो ऐप्से ही श्रावकों म सेथे, ये श्री. श्री माली जाति के सोनोगिरा वंश के ये।
इनका वंश बमा गौरवशाली के प्रतिष्ठित था। इनका सम्पूर्ण वर्णन ही * करने का यहां स्थान नहीं है। मंत्री ९ मंमन और धनदके पितामह का नाम
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माडवगढका मन्त्री
५३
ऊंऊण था । इसके १ चाहम. २ बाहम ३ देहरु. ४ पद्म. ५ आल्हा. ६ पाहु नामक व पुत्र थे इनमें से देहम और पद्म तो मांगगढ के तत्कालीन बादशाह आलमशाह के दीवान थे और बाकी के अन्यान्य व्यवसायों में अग्रगए थे। इन व जाइयों के बहुत से पुत्र थे (जनमें से मंगन और धनदाज विशेष प्रसिद्ध थे ।
।
मंकन बाहर का छोटा पुत्र था और धनदराज देहम का एक मात्र लगका था। इन दोनों चचेरे जाइयों पर, लक्ष्मी देवी की जैसी प्रसन्न दृष्टिथी वैसी ही सरस्वती देवी की जी पूर्ण कृपाथी यानि ये जैसे बने जारी श्री न् थे वैसे ही उच्च कोटिक विद्वान जी थे
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पेथडकुमारका परिचय.
मंझन ने व्याकरण, काव्य, साहित्य, अलङ्कार और संगीत आदि निन्न
२ विषयों पर मंमन शब्दाहित अनेक - ग्रन्थ लिक्खे ह । इन ग्रन्थों में से की
आठ नौग्रन्थ तो पाटन के उपरि । नलिखित-वामी-पार्श्वनाथ के नं. मार में मंमन ही के (संवत १५०४ में) लिखवाये हुवे विद्यमान हैं। इनके नाम इस प्रकार हैं-१ काव्य मंमन (कौरव पाएव विषयक).२ चम्पू मेमन (ौपदी विषयक). ३ कादम्बरी मं. मन ( कादम्बरी का सार). ४ श्रृंगार मंमन. ५ अलंकार मंमन. ६ संगीत मंगन. ७ उपसर्ग मंमन. सारस्वत मंमन (सारस्वत, व्याकरण पर विस्तृत विवेचन ) और ए चन्द्र विजय प्रबन्ध।
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**ः
मांडवगढकामन्त्री
मंकन के जीवन चरित्र के विषय में उसके मित्र महेश्वर नामक कवीने काव्य मनोहर नामक सात सर्गों का एक बोटासा काव्य लिखा है उसमें मंकन के पूर्वजों का और मंमन का संक्षेप में जीवन वृत्तान्त उल्लिखित है ।
उसकी जी दो प्रतियें मंगन की लिख बाई हुई एक ही लेखक की लिखी हुई उक्त जाएगार में विद्यमान हैं ।
संमन की जांति धनदराज या धनदजी बमा अच्छा विद्वान था । "धनदत्रीशती" नामक एक ग्रन्थ राजर्षिर्तृहरी की " शतक त्रयी" का अनु करण करनेवाला, उसका लिक्खा हुवा है | यहां पर इसका विशेष उल्लेख नहीं किया जाता है तो जी इतना अवश्य
MANTRAK
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KRRIGERGRIGHTTARRIEF र ५६ पेथडकुमारका परिचय
कह देना चाहिये कि इन ग्रथों में इनका पाएिमत्य और कवित्व अच्छी तरह प्रगट हो रहा है।
* श्री विजयदेव सूरीश्वरको मांडवगढ १ + पधारने के लिये जहांगीर बादशा-१
हका आमत्रण.
अकबरके पोडे उप्तका लमका ज. हांगीर बादशाह देहली में तख्तनशीन हवा और पमाव डालकर मांमत्रगढ में रहता था। उसने फरमान लिख ___ * मुम्बई के श्री अध्यात्मज्ञान प्रसारक मंडल की तरफ से गुजरातो लीपी में छपी हुई जैन पतिहासिक रासमाला प्रथम भाग की समालो. चना के २६ वे पृष्टपर श्रीयुत् मोहनलाल दलो
चंद देसाई पो. ए. एल. एल. बी. ने लिक्खा है है उससे उधृत । लेखक
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hi
मांडवगढका मन्त्री
कर श्री विजयदेवसूरीश्वर महाराज को अपने पास बुलवाया । उस वक्त श्री विजयदेव सूरिजी खम्नात में बिराजमान थे । फरमान पढ कर उक्त सूरिजी मांमवगढ जाने के लिये रवाना हुवे और नेमसागर को राधनपुरसे बुलाये | ने मिसागरजी अपने साथ वीरसागर, जक्तिसागर, प्रेमसागर, शुजसागर, श्रीसागर, शांतिसागर, गण सागरच्यादि शिष्यों सहित राधनपुरसे मांगवगढ जानेके लिये निकले । जब वहाके संघने कहाकि मार्गमें मोहनपुर पहामी गांव आता है और जैसे नाम तैसे गुणवाली सांपिनी, वोबिनी नामक नदियां आती हैं इस लिये मी सावधानी से पधारना । धर्मके
५७
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५८ पेथडकुमारका परिचय.
प्रत्नावसे सब अच्छा होगा ऐसा कहकर * गुरुवर्य अहमदावाद होकर बमोदे प20 हुंचे। वहां श्री जिनेश्वर देव के दर्शन है
किये और विगयका त्याग कर आ
म्बिल; नोवी, आदि तप करते हुवे * श्री मांडवगढ पहुंचे।
PRESISEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERS जहांगीर बादशाह से मुलाकात
33333333333333333929
मांमवगढ पहुंचकर सब मुनिजनोंने श्री विजयदेव सूरिजी को वन्दन किया । सूरिजो की बादशाह के साथ मुलाकात हुई और वार्तालाप से खुश होकर र श्री विजयदेव सूरीश्वर को “ सवाई
महातपा” नामक उपाधि प्रदान की। श्रावक लोग प्रतिदिन महोत्सव करने
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माडवगढकामन्त्री ५९ लगे । फिर नेमिसागर उपाध्यायजी * जहांगीर बादशाह को मिले वहां परवाद हुवा । उसमे जीतनेसे बादशाहने नेमिसागरजी को " जगजीपक ” नामक विरुद दिया।
। मंडप दुर्ग में महात्माका चातुर्मास
जुक्त रासमाला की समालोचना के चोतीस वें पृष्ट में लिख्या है कि संवत १६१६ में जो महाशय श्री हीर विजयसूरीश्वर के हस्त दिक्षित हुवेथे वे ।
श्री कल्याण विजयजी उपाध्याय श्री श्री - मंझपाचल ऽर्गको यात्राकरने को पधारे में - थे और चातुर्माप्त जी वहीं कियाथा।
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煮物にと
६० पेथडकुमारका परिचय.
000
श्री सुपार्श्वनाथकी प्रतिमाकी
उत्पत्ति और इसतीर्थकी प्रख्याति ।
०००
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उपदेश तरंगिण में लिक्खा है कि
वनवास में श्री लक्ष्मणजीने सीताजी के लिये सातवें श्री सुपार्श्व
के
पूजन
नाथ जगवान की मूर्ति बनाई उस
मूर्ति के सबब से इस तीर्थ को प्रख्याति
हुई और चैत्यवन्दन में नोचे लिखे माफिक कहने में खाया | मांगगढनो राजियो, नामे देव सुपास |
ऋषम कहे जिन समरतां, पहुंचे मननी खास ॥
66
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御朱料お茶
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मांडवगढकामन्त्री
६१
मांडवगढ मंडन श्री सुपार्श्व १
जिन स्तवन
.
पालणपुर में पास जिनन्द प्यारा ॥ चाल ॥
।फाग। मांमवगढ में सुपार्श्व प्रजुजी, प्यारा मांमव० ॥ए अंचली॥ बनवास में लक्ष्मणजीनेए, निपजाया जिन बिंबसारा मांमव. ॥१॥ सीता सतीको पूजन खातर, जग जनमन मोहन गारा मांगव.॥२॥ शील प्रजावे वज्र मय मूर्ति, होगई तेजे जीसा तारा मांमव. ॥३॥ अद्जुत महिमा अखंग प्रजुका, संकट सव फेटण हारा. मांडव. ॥४॥ हंसवाहना हिंदोले जिव्हापर, है जो जिन गुण गायन कारा.मांमव.॥५॥
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६२ पेथडकुमारका परिचय. *HEIRECIRRORAKASHAAREERY
मांडवगढतीर्थका दूसरा स्तवन। TREBA DA GIBALESEXUBERASYON ॥ जावो जावो नेमि पिया, थारी गति जानी रे-ए देशी. तोरथ पवित्र मांमवगढ, मनो हारारे. आंकणी. तोहां शोने शांतिनाथ, सातमा सुपार्श्वनाथ । विजयानन्द सूरीश्वर, मूर्तिरूपे प्यारा रे ॥ तीरथ. ॥१॥ रामचंड लदमण वीर, सीतासती अति धीर । प्रनु पूजा करी हां, शिव सुखकारा रे ॥ तोरथ.॥२॥ प्रमद पारस प्रनु, जगतना एतो ऋजु ।
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मांडवगढकामन्त्री
६३
देवल तेमनु हतुं, जीवन आधारा रे ॥ तीरथ. ॥३॥ ते पार्श्व प्रजुनु कीधु, स्तोत्र जिन चंखे सिधु । संसार दावानी सम. स्याथकी प्रचारार ॥ तोरथ. ॥४॥ पेथम कुमार मंत्री, कांजनकुमार तंत्र। संग्राम सिंहजैन योझा, पुण्यना नंमारारे ॥तीरथ. ॥५॥ मोटा मोटा ग्रंथकार, ज्ञानकोशना नरनार। मंगन कवि धनदराज, जैन सारा रे ॥ तीरथ. ॥६॥ रतन बाई साथे आवी, शिवकोर बाई संघ खावी।
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६४ पेथडकुमारका परिचय.
ओगणी से तोतेर, साल उदारा रे ॥ तोरथ.॥७॥ गुरु लक्ष्मी विजय सारा, हंस विजय स्तवन कारा। यात्रा करी मेरु तेरस, दिन रविवारा रे ॥ तीरथ. ॥७॥
600/corpono
ORDSDIGDORIEDOHOODADARDog
मांडवगढ़ मे श्री प्रमद
पार्श्वनाथका मंदिर । Cerooroverebrbrecorreres
“संसार दावानल दाहनोरं" इस स्तुति की समस्या पूर्ति वाला प्राचीन * स्तोत्र उपलब्ध होता है इससे साबित
है कि पेश्तर इस मामवगढ में श्री प्रमद पार्श्वनाथ का जिनालय था। उक्त स्तोत्र निम्नानुसार है॥श्रेयोदधानं कमला निधानं, पार्श्व स्तुवेहं प्रमदानिधानं । MARATHIMITENAMES
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माडवगडकामन्त्री
स्वश्रेयसं श्रीसहकार कीरं, संसार दावानल दाह नीरं नित दोषं कृतधर्म पोषं, प्रोन्मुक्त योषं हत जुष्ट दोषं । सकेवल श्री रमणैक वीरं, संमोह धूली हरणे समीरं. ॥२॥ अनिंद्य विद्या वदनं वदान्यं, पार्श्व स्तवीमि त्रिदशेन मान्यं । कर्म दयादाप्तनवाब्धि तीरं, माया रसादारण सार सीरं ॥३॥ अमंद मंदार सुदाम दिव्य, प्रसून सारै महितं हि पार्श्व । स्फूर्ज यशस्तर्जित हारहीरं, नमामिवीरं गिरिसार धोरं ॥ ४ ॥ निःशेष लेखवररेख नरेषु कामं, दानंददान महिमादलुत नाग्य धेय।
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६६ पेथडकुमारका परिचर. ॐ श्रीपार्श्वदेव जयजन्म जरा पहेन.
नावावनाम सुरदानव मानवेन ॥५॥ निःसंग रंग गरिमादि गुण प्रधानि, निबिन्न बद्मतिमिराणि मनोज्ञदानि। नक्ति प्रणम्र नर नायक नागलोक, चूला विलोलकमलावलिमालितानि॥६॥ कल्याण कारणतराणि गतापदानि, संपत्पदानि दितर्गति मंत्रानि। निस्सोमनोमनवनीति विनेदकानि । - संपूरिता निनत लोक समोहितानि ॥
वामेय गेयगुण मानविगान मुक्त, पद्मावती धरणराज वर प्रयुक्त ।
यजन्मसंयममुखानि शिवंकराणि, • कामं नमामि जिनराज पदानि तानि |
तापोच्छेदं दिशदनुदिनं प्राणिनां ना. वुकानां, सिद्धंयस्यामृतरसमयं तुम कुंमात्प्रवृत्तं ॥ नात्यहस्ते सुवचन सरः ।
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मांडवगढकामन्त्रीही - पाप पंकापहारि, बोधागाधं सुपदपदयो २. निर पुगनिगम ॥ ॥ ॥ वाताव हिमल
मखिला नर्मदा शर्मदापि, कासोः काती कसुषहरिणी तुंगनातिना ॥ तुंगा गंगा जिनमतसरी नाप्तमंतः पवित्रं, जीवा हिंसा विरललहरी। सगमागाहर देखें ॥१०॥ जोजानव्या यदि शिवपर मोहालक्ष्मीबजुदा, सिहांताब्धिं समनमरत प्राबसन्न्यायचक्र । निर्णि कानः परम गरिमा गारमानंद हेतुं, च.
वाचलं गुमगममणी संकुलं दुरपारं ।।११।। 5 माहाद विनिम्हसमुन्मूलनेह म्ति ह.
म्न. प्रानिंदनं परमतरजः पुंजमुन्नत
शम् ॥ संसव्यंश्री जिनजनगणैः का. + मदमश्रिताना, मावीरा गम जननिधि
मादरं माधुसवे ॥१२॥ नक्तिप्रहावन त्रा
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६८ पेथडकुमारका परिचय.
मरवर निकरै र्निर्जरै र्निर्मितायत् ' पादाधस्ताद्विहारा वसर मवनिबुध्यप्रबुद्धस्यनेतुः॥ उत्तप्त स्वर्ण वर्णा नव नव कमल श्रेणयनुश्रेण्यबाधा, या मुलालोलधूली बहुलपरिमला लोढ लोलालिमाला ॥ १३ ॥ जावोद्भुतप्र मोद प्रजुतविनतिनि भूरि नक्तिं विधत्ते, यःपार्श्वशक्रमाब्जे तव विपुल रमा प्राज्यराज्येन सार्धं । तस्य स्थैर्य जजेत प्रगत चपलता संततं षट्पदाली, ऊंकारारावसारा मलदलकमला गार भूमी निवासे ॥ १४ ॥ यस्मिन् गर्जावतीर्णे जगवति धनदः प्रत्नरत्नैः सुचेलैः, कल्याणैर्दिव्यवर्णै रनणु मणि गणै गंधवासैर्ववर्ष | श्रुश्रूषां कर्तुकाम स्त्रिदशवर गिरा सुंदरे मंदिरे वै, बाया
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मांडवगढकामन्त्री ६९ म संचारसारे वरकमलकरे तारहारानिरामे ॥ १५ ॥ पंकोत्पन्नंरजस्वि प्रव. लतर जमा संग मुच्चै विहाया, ऽर्हद्वक्रा ब्जे निवासं निरुपम परमे याव्यधादना
रतित्वं । श्रेयो लदमी विलासे जगवति ॐ वरदे चंद्रचंद्र प्रनाढ्ये, वाणीसंदोह
देहे नवविरहवरं देहिमे देवि सारं ॥ १६ ॥ इत्थंभो पार्श्वदेव स्त्रिनूवन ।
विजयी जैन नखांहि सेवः, श्रीसिद्धांत में प्रनोद्यछिनयनतमुनिर्जेनचन्द्रो वि.
तन्धः। श्री मच्छ्रोमएमपप्रा-गुदय गिरिशिरो मएमनं जोवराजी, राजीवो हास हेतुः प्रदिशतुकुशलं श्रेयसे श्री विलासम् ॥१७॥
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शुद्धि पत्रक.
অল্প कलाशांकितम् झाहरम
कलशांकितम् १ शाहग्में
JE " " .
हागइ
होगड
मपधार
मे पारे
तोय
तीर्थ
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मंदिरम तारापुरम पशुसागरम वधमान
मंदिग्में १५ तारापुरमें १९ पशुमागरमें १९ वर्धमान ११
होगय
संबके शहरा
होगये सबक
शहरो
..
पाश्च
मातयोंसे राजाओंक घठना आद्यभार उसक श्रावकोम श्री-न् लिखेह
पाच ३४ मोनियोंसे ४५ राजाओंका ४६ घटना ४६ आभार ४९ उसकी ५० श्रावकोंमेसे ५२
श्रीमान् ५३ - लिखेहे ५४
"
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________________
RAKHRETARIALISTExnx श्री हंस विजयजी जैन फ्री लायब्रे.
रीमा मळतां पुस्तको.
23. 8
A
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XXXNXNXHTKIRI
०.१५-०
भेट
२
पुस्तकनुं नाम. कीमत. . नीतिदर्पण
०-४-० २,४,७ प्राणोपोकार
हेमविनोद स्नात्र पुजा नवनवसंक्षिप्त पार
०-२-० नर्मदासुंदरी कथा
शोलवती कथा १,१७ तिथि तप माणिक्यमाला ०-१-० २,१३ गहली संग्रह ०-३-०
श्री नेमिनाथनी पूना ०-४-० हीरप्रश्न
०-४अष्टापद पूजा शुकराज कथा
०-४-० धर्पविधि प्र० छपाय छे. प्रश्नोत्तर पुष्पमाला होरप्रश्नावळी
०-४-० देशाटन
०-४-० लुणमावाडो मोटी पोळ-अमदावाद
JOLsooLASOOL
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QJ.SHOCAL
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Page #112
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________________ श्री हंस विजयजी जैन फ्री लायब्र रीमा मळतां पुस्तको. पुस्तकनुं नाम. कीमत. 1 श्री कावितीर्थ स्तवनादि संग्रह भेट 2 श्री संवेगद्रुम कंदलो 3 श्री गहुँली संग्रह भेट 4 तत्वामृत भाषान्तर सहित 0-8-0 5 लाहोरमें श्री विजयसेनमूरिकी पधरामणी 0-1-0 6 सज्जन सदुपदेश भेट . 7 श्री समेतशिखरादि तीर्थयात्रा ....... प्रवास 0-4-0 8 गिरनार मंडन श्री नेमिनाथजी___की अष्टोत्तर शतप्रकारी पूजा 0-8-0 9 लायब्रेरीनो प्रचार केवा प्रका रनो होवो जोइए. भेट 10 श्री लोकतत्त्व निर्णय ग्रंथ भाषान्तर सहित 0-8-0 ठे. लहेरीपुरा, वडोदरा.