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जैन सिद्धान्तानुसार मनुष्य का आहार काल परिभाषा
"मनुष्य" यह नाम मनुशब्द से बना है, मनुका अपत्य अर्थात् — सन्तान मानव कहलाता है ।
जैन सिद्धान्त के अनुसार मानव जाति का ह्रास और विकास होता ही रहता है । जैनदर्शन के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश कभी नहीं होता, अमुक काल में प्रत्येक प्राणिजाति की उन्नति और उसके विपरीत काल में हास अवश्य होता है, परन्तु जैनशास्त्र सर्वथा सृष्टि का प्रलय नहीं मानता, न असत् से उत्पत्ति ही मानता है । जैन - मतानुसार पृथ्वी के निश्चित भूभागों में रहने वाले मनुष्यादि प्राणियों के शरीर आयुष्य आदि भाव सदा समान रहते हैं, तब अमुक क्षेत्रों में उन के शरीर आयुष्य आदि, घटते-बढ़ते रहते हैं ।
भारतवर्ष उन क्षेत्रों में से एक है, जिनमें कालचक्र के पलटने से प्राणियों के शरीर आयुष्य आदि का मान पलटता है । जैन - परिभाषानुसार वर्तमान समय अवसर्पिणी समा है, इसका प्रथमारक सुषमसुषमा, द्वितीय सुषमा, तृतीय सुषमदुष्षमा, चतुर्थ दुष्षम सुषमा, पांचमां दुष्षमा, और छठा दुष्षम दुष्षमा नाम के ये छह अरक हैं । प्रथमारक चार कोटा कोटि सागरोपम, दूसरा तीन कोटा कोटि, तीसरा दो कोटा कोटि सागरोपम माना गया है, चौथा वियालीस (४२) हजार वर्ष न्यून एक कोटा कोटी
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