Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 14
________________ शान्ति मिलती है, उसी का नाम मत्र से रक्षा है। दूमरो के सुकृत की अनुमोदनारूपसुकृत अखडित शुभ भाव का कारण है । परम तत्त्व के प्रति समर्पण भाव एक तरफ नम्रता. दूसरी तरफ निभंयता लाता है एक दोनो के परिणाम स्वरूप निश्चिन्तता का अनुभव होता है। अभेद मे अभय है एव भेद मे भय है। नमस्कार के प्रथम पद मे अग्हि गन्द है, वह अभेद-वाचक है एव उमसे किया हुया नमस्कार अभय-कारक है । अभयप्रद अभेदवाचक अरिह पद का पुन पुनः स्मरण त्राणकारी, अनर्थहारी तथा प्रात्म ज्ञान रूपी प्रकानकारी होने से प्रत्येक विवेकी के लिए आश्रयणीय है। नमस्कार मंत्र महाक्रिया योग है पचमगल रूप नमस्कार ही महाक्रियायोग है क्योकि उसमे दोनो प्रकार का तप, पाचो प्रकार का स्वाध्याय एव परमोच्च तत्त्वो का प्रणिधान निहित है। बाह्य-अभ्यतर तप ही कर्म रोग की चिकित्सा रूप बनता है, पाँचो प्रकार का स्वाध्याय महामोह रूपी विप को उतारने हेतु मत्र के समान बन जाता है एव परमेष्ठि का प्रणिधान भवभय का निवारण करने हेतु परम-शरण रूप बनता है। नमस्कार रूपी पच मगल की क्रिया ही अभ्यन्तर तप, माव, स्वाध्याय एव ईश्वर प्रणिधान रूप महाक्रियायोग है। इसका स्मरण अविद्यादि क्लेशो का नाश करता है एव चित्त के अखड समाधि रूप फल को उत्पन्न करता है। क्लेश का नाश दुर्गति का क्षय करता है एव समाधिभाव सद्गति का मजन करता है। नमस्कार मे 'नमो' पद पूजा के अर्थ मे है एव पूजा द्रव्य

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