Book Title: Mahamantra ki Anupreksha
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Mangal Prakashan Mandir

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Page 13
________________ 5 चित्त चारों दिशाओं से निर्मल हो प्रकाशित हो उठता है । समता, क्षमा, सतोष, नम्रता, उदारता एव निस्वार्थता यादि गुरण उसमे से प्रकट होते हैं । शब्द नमस्कार का शरीर है अर्य नमस्कार का प्राण है एव भाव नमस्कार की ग्रात्मा है । नमस्कार का भाव जब चित्त को स्पर्श करता है तब मानव को सम्प्राप्त आत्मविकास का अमूल्य अवसर धन्य होता है । नमस्कार से आरम्भ हुई भक्ति अन्त मे जब समर्पण में पूर्ण होती है तत्र मानव स्वजन्म की सार्थकता का अनुभव करता है । नमस्कार मंत्र सिद्ध मंत्र है । इस मंत्र का स्मरण मात्र करने से आत्मा मे जीवराशियों के ऊपर स्नेह परिणाम जाग्रत होता है । अतः स्वतंत्र ग्रनुष्ठान या पुरश्चरणादि विधि की भी जरूरत नही पडती । उसका मुख्य कारण पचपरमेष्ठि भगवान् का अनुग्रह - कारक सहज स्वभाव है तथा है प्रथम परमेष्ठि अरिहन्त भगवान का सिद्ध सकल्प कि "जीव मात्र का आध्यात्मिक कल्याण हो" । अमेद में अभय एवं भेद में भय गुण बहुमान का परिणाम अचिन्त्य शक्ति से युक्त कहा गया है । निश्चय से बहुमान का परिणाम एव व्यवहार से वहुमान का सर्वोत्कृष्ट विषय दोनों के मिलने से कार्य सिद्धि होती है । गुणादि का स्मरण करने से रक्षा होती है । उससे वस्तु स्वभाव का नियम कार्य करता है । घ्याता अन्तरात्मा जब ध्येय - परमात्मा का ध्यान करती है तव चित्त मे ध्याता ध्येयध्यान इन तीनों की एकता स्त्री समापत्ति होती है, जिससे क्लिष्ट कर्म का अवसान होता है एव अन्तरात्मा को अद्भुत

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