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महाबंध अणुभागबंधाहियारे
ज० बं० तिरिक्ख० - तिरिक्खाणु० उज्जो० सिया० अांतगुणब्भ० मणुस ० लस्संघ० मणुसाणु ० दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया० । तं तु० । पंचिंदि० - ओरालि० - तेजा ० क०ओरालि० गो०-पसत्थापसत्थ०४ - अगु०४-तस०४- णिमि० णि० अनंतगुणन्भ० । एवं तिष्णिसं ठाणं पंच संघ० । हुंडसं० ज० बं० णिरय ० - मणुस ० चदुजादि ० - वस्संघ०दोआणु ० - दोविहा० - थावरादि४ - थिरादिछयुग० सिया० । तं तु । तिरिक्ख ०पंचिदि० - दोसरीर दो अंगो०- तिरिक्खाणु० - पर० - उस्सा ० - आदा उज्जो ० -तस०४ सिया० अनंतगुणभ० | तेजा [० क० - पसत्थापसत्थ०४ - अगु० - उप० - णिमि० णिय० अणंतगुणभ० । एवं दूभग- अणादे० ।
६६. ओरालि० अंगो० ज० बं० तिरिक्ख० - हुंड० - असंप ० - अप्पसत्थ ०४ - तिरिक्खाणु० - उप० - अप्पस ० -- अथिरादि० णिय० अनंतगुणन्भ० । पंचिंदि० - ओरालि०तेजा० क० - पसत्थ०४ - अग ०३ -तस०४ - गिमि० निय० । तं तु० । उज्जीवं सिया० । तं तु० ।
श्रदेयकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । मनुष्यगति, छह संहनन, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क,
चतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार तीन संस्थान और पाँच संहननकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । हुण्डसंस्थानके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव नरकगति, मनुष्यगति, चार जाति, छह संहनन, दो आनुपूर्वी, दो विहायोगति, स्थावर आदि चार और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करता है । यदि वह बन्ध करता है तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है । यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । तिर्यञ्चगति, पञ्च ेन्द्रियजाति, दो शरीर, दो आङ्गोपाङ्ग, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, और त्रसचतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होतो है । तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणका नियम से बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । इसी प्रकार दुर्भग और नायकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए ।
६६. औदारिक आङ्गोपाङ्गके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति, हुण्डसंस्थान, असम्प्राप्तासृपाटिका संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्च गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति और अस्थिर आदि छहका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है । पञ्च ेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक,
सचतुष्क और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है । किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है तो वह छह स्थान पतित बृद्धिरूप होता है । ज्योत का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है
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