Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 366
________________ पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं ३५७ असण्णि० णेरइगभंगो। णवरि दोण्हं मिस्साणं आउ० ओघं । सेसाणं सव्वत्थो० उ० हाणी अवट्ठाणं च । उक्क० वड्डी अणंतगुः । एवं वेउब्वियमि० । एदेसिं उज्जोवं जाणिदव्वं । ६०७, मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण०-पंचवचि०-ओरा -इत्थि०-पुरिस०णस०-चक्खुदं०-सुक्क०-सण्णि. खविगाणं ओघ । सेसाणं णिरयभंगो। उज्जो० ओघं । णवरि मणुस-[३] इत्थि०-पुरिस वजेसु । कायजोगि-कोधादि०४-मदि०-सुद०विभंग०-असंज०-अचक्खु-भवसि०-मिच्छादि०-आहारए ति ओघभंगो। कम्मइ० देवगदिपंचग० सव्वत्थो० वड्डी । हाणी विसे । सेसाणं पगदीणं सव्वत्थो० अवट्ठा० । बड्डी अणंतगु० । हाणी विसेसाधिया । अवगद० सव्वाणं सव्वत्थो० उ० हाणी । उ० बड्डी अणंतगु० । एवं सुहुमसं०। आभिणि-सुद०-ओधि० मिच्छत्ताभिमुहाणं सव्वत्थो० उ० हाणी अवहाणं च । उ० वडढी अणंतगु० । खविगाणं ओघं । एवं मणपज्जव०-संज०-सामा०-छेदो०-परिहार०-संजदासंज०-ओधिदं०-सम्मा०-खइग०वेदग०-उवसम०-सम्मामि० । णवरि खइगे अप्पसत्थ० ओघं इत्थिवेदभंगो। एवं उक्कस्सं समत्तं । योगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, पाँच लेश्यावाले, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि दो मिश्रयोगोंमें आयुका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। इनसे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुगी है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए । इनके उद्योत भी जानना चाहिए। ६०७. मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, चक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले और संज्ञी जीवोंमें क्षपक प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। उद्योतका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, स्त्रीवेदो और पुरुषवेदी जीवोंको छोड़कर कहना चाहिए । काययोगी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। कार्मणकाययोगी जीवोंमें देवगतिपश्चककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। इससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है। इससे उत्कृष्ट हानि विशेष अधिक है। अपगतवेदी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है । इससे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंमें जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्वके अभिमुख प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान सबसे स्तोक हैं । इनसे उत्कृष्ट वृद्धि अनन्तगुणी है । क्षपक प्रतियोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अप्रशस्त प्रकृतियोंका भङ्ग ओघसे स्त्रीवेदके समान है। इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। १. आ० प्रतौ पंचमण० ओरा० इति पाठः । २. ता. प्रतौ ओघं । मणपज० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426