Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ वड्ढी अप्पा बहुअं भावो ओघे० सव्वपगदीणं सव्वपदाणं बंधगा त्ति को अणाहारए ति णेदव्वं । अप्पाबहुअं ६२५. अप्पा बहुगं दुवि० । ओघे० पंचणा०-णवदंस०-मिच्छ० - सोलसक०भय-दु० - ओरालि० -तेजा० ० - क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि ० - पंचंत० सव्वत्थो ० अवत्त० | 'अट्टि० अनंत० । अनंतभागवड्डि-हा० दो वि० तु० असं० गु० । असंखेजभागवड्डि-हा० दो वि तु० असं० गु० | संखेजभागवड्ढि - हाणि ० दो वि० तु० असं०गु० | संखैज्ञगुणवड्डि-हाणि० दो वि तु० असं० गु० । असंखैअगुणवड्डि- हाणि० दो वि तु० असंखें ० गु० । अनंतगुणहाणि० असं० गु० । अनंतगुणवड्ढी विसे० । एवं तित्थय० । णवरि अवट्ठि० असं ० गु० । आहार०२ सव्वत्थो० अवट्ठि० । अणंतभागवड्डि-हाणि० दो वि तु० संजगु० । असंखैअभागवड्डि-हाणि० दो वि तु० सं०गु० | संखॆजभागवड्डि-हाणि ० दो वि तु० संखैअगु० | संखैअगुणवड्डि- हाणि० दो वि संखें० गु० । असंखेजगुणवड्डि-हाणि० दो वि तु० संखे गु० । ६२४. भावानुगमेण दुवि० । भावो ? ओदइगो भावो । एवं याव तु० भाव ६२४. भावानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ व आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका कौनसा भाव है ? ओदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ३७१ अल्पबहुत्व ६२५. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित पदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहांनिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदवाले तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षासे अल्पबहुत्व जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि यहाँ पर अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। आहारकद्विकके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यात - भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों हो तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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