Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 424
________________ जीवमुदाहा ४१५ ६७२. अप्पाबहुगे त्ति उक्कस्सए अज्झवसाणट्ठाणे जीवा थोवा । जहण्णए अज्झव - साड्डाणे जीवा असंखेजगुणा । कंडयजीवा तत्तिया चेव । यवमज्झे जीवा असंखेजगुणा । कंडयस्सुवरि जीवा असंखेज्जगुणा । यवमज्झस्सुवरिं कंडयस्स हेट्ठदो जीवा असंखेजगुणा । कंडयस्सुवरिं यवमज्झस्स हेडदो जीवा तत्तिया चेव । यवमज्झस्सुवरिं जीवा विसेसा० । कंडयस्स हेट्ठदो जीवा विसे० । कंडयस्सुवरि जीवा विसे० । सव्वेसु जीवा विसेसाधिया । एवं जीवसमुदाहारे त्ति समत्तमणियोगद्दाराणि । एवं उत्तरपगदिअणुभागबंधो समत्तो एवं अणुभागबंध समत्तो ६७२. अल्पबहुत्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट अध्यवसानस्थानमें जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे जघन्य अध्यवसानस्थानमें जीव असंख्यातगुणे हैं । काण्डकके जीव उतने ही हैं। इनसे यवमध्यमें जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे काण्डकके ऊपर जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर और काण्डकसे नीचे जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे काण्डकके ऊपर और यवमध्यके नीचे जीव उतने ही हैं । इनसे यवमध्यके ऊपर जीव विशेष अधिक हैं । इनसे काण्डक नीचे जीव विशेष अधिक हैं । इनसे काण्डकके ऊपर जीव विशेष अधिक है । इनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक हैं । इस प्रकार जीवसमुदाहार नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । इस प्रकार उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध समाप्त हुआ । इस प्रकार अनुभागबन्ध समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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