Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 381
________________ ३७२ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त० संखेजगुः । अणंतगुणहा० संखेंजगु० । अणंतगुणवड्ढी विसे० । सेसाणं सादादीणं सव्वत्थो० अवहिः । अणंतभागवड्डि-हा० दो वि० तु. असं०गु० । असंखेजभागवड्डि-हा० दो वि तु० असं०गु० । संखेजभागवड्डि-हाणि दो वि तु० असं०गु० । संखेंजगुणवड्डि-हा० दो वि तु० असं०गु० । असंखेजगुण वड्डि-हाणि• दो वि तु० असं०गु० । अवत्त० असं०गु० । अणंतगुणहा'. असं०गु० । अणंतगुणवड्डी० विसे । णेरइ० धुविगाणं सव्वत्थो० अवढि० । उवरि मूलोघं । [थीणगिद्धिदंडओ] तित्थ० सव्वत्थो० अवत्त । अवढि० असंग० । सेसाणं ओघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । णवरि सत्तमाए दोगदिदोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो एदेण कमेण भुजगारभंगो याव अणाहारए त्ति णेदव्वं । एवं वड्डिबंधे त्ति समत्तमणियोगद्दाराणि । अज्झवसाणसमदाहारो ६२६. अज्झवसाणसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पगदिसमुदाहारो हिदिसमुदाहारो तिव्वमंददा त्ति । गुणे हैं । इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर संख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं। शेष सातावेदनीय आदिके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तल्य होकर असंख्यातगुणे है। इनसे संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगणहानिके बन्धक जीव दोनों ही पदोंके तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिके बन्धक जीव दोनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अनन्तगुणहानिके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धिके बन्धक जीव विशेष अधिक है। नारकियोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थितपदके वन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। आगे मूलोधके समान भङ्ग है। स्त्यानगृद्धिदण्डक और तीर्थकरप्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे स्तोक है। इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे शेष पदों व शेष प्रकृतियोंके सब पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। इसी क्रमसे अनाहारक मार्गणा तक भुजगार भङ्गके समान जानना चाहिए। इस प्रकार वृद्धिबन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अध्यवसानसमुदाहार ६२६. अध्यवसानसमुदाहारमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-प्रकृतिसमुदाहार, स्थितिसमुदाहार और तीव्रमन्दता। १. श्रा०प्रतौ संखेजगुणवडि-हा. दो वि तु. असं० गु० । अणंतगुणहा० इति पाटः । २. ता. प्रतौ अवहि० । उवरि मूलोघं ।..."तित्थ०, प्रा० प्रतौ अवहि । मूलोघं ।".."तित्थ० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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