Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 390
________________ ३८१ पडसमुदाहारो णिद्दा० असं०गु० । पयलापयला० असं० गु० । णिद्दा० असं० गु० । पयला० असं० गु० । णीचा० असं० गु० । अजस० विसे० । तिरिक्ख० असं ० गु० । रदि० असं० गु० । हस्स० असं० गु० । मणुसाउ० असं० गु० । तिरिक्खाउ० असं० गु० । एवं सत्तमा पुढवीए । णवरि मणुसाउ० णत्थि । सेसासु पुढवीसु णीचा० - अजस० तुल्लाणि णादव्वाणि । यथा पढमपुढवीए तथा देवगदीए सव्वेसु वि कप्पेसु । एवं बेव्वियमि० ० । णवरि णीचा० - अजस० णिरयोघं । वेउव्वियमि० आउ० णत्थि । ६३९. तिरिक्खेसु सव्वबहूणि अणुभा० साद० । जस० उच्चा० असं० गु० । देवग० असं ० गु० । कम्म० असं० गु० । तेजा० असं० गु० । वेउव्वि० असं० गु० । मिच्छ० असं० गु० । केवलणा० - केवल दंस० - विरियंत० असं० गु० । असादा० विसे० । अताणु • लोमे० असं ० गु० । माया० विसे० । कोधे० विसे० । माणे० विसे० । ० गुणे हीन हैं । इनसे शोकके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे भयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे जुगुप्साके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्रानिद्रा के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे प्रचलाप्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे निद्राके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे प्रचलाके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे नीचगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे अयशः कीर्ति के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे रतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे हास्य के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं । इनसे मनुष्यायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तिर्यवायुके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यायुका भङ्ग नहीं है। शेष पृथिवियों में नीचगोत्र और अयशः कीर्तिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तुल्य जानने चाहिए। जिस प्रकार प्रथम पृथिवीमें है, उसी प्रकार देवगतिमें तथा सब कल्पोंमें भी जानना चाहिए। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि नीचगोत्र और अयशः कीर्तिका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें आयुका भङ्ग नहीं है । ६३९. तिर्यवों में सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं । इनसे यश कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तैजसशरीर के अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण और वीर्यान्तरायके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान तीनों ही तुल्य होकर असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे असातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान विशेष हीन हैं। इनसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं। इनसे भनन्तानुबन्धी मायाके अनुभागबन्धाभ्यवमान स्थान विशेष हीन हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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