Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 416
________________ तिव्वमंदपरूवणा ४०७ पलि० असं०भा० सेवियं पुण परूवणं कादण' णिरंतरं याव अब्भव०पाओग्गज. ट्ठि० बं० समऊणे ति । तदो अब्भव०पाओजहण्णादो द्विदिबं०णिव्वग्गणकंडयमेत्तीओ द्विदीओ ओसकिदूण या हिंदी तिस्से ट्ठि. उक्क० अणुभागेहितो अब्भव०पाऑग्गजह० द्वि० जह० अणु० अणंतगु० । तदो समउत्तराए डिदीए जह० अणु० तत्तिया चेव । विसमउ० हि० ज० अणु० तत्तिया चेव । तिसमउत्तराए द्विदीए तत्तिया चेव । एवं सागरोवमसदपुधत्तमत्तीणं तुल्लो जह० अणु० बं०। तदो यासि हिदीणं तुल्लो जह० तासिं णाम सण्णा परियत्तमाणजहण्णाणुभागबंधपाओग्गं णाम । तदो परियत्तमाणजह० बं० पाओग्गा० उक० हिदीदो जह० अणुभागेहिंतो समउ० हि० ज० अणु० अणंतगु० । विसमउ० ज० अणु० अणंतगु० । तिसम० हि० जह० अणंतगु० । एवं असंखेंजहिदि० णिव्वग्गणकंडयस्स असंखेंजदिभागो एत्तियमेत्तीणं द्विदीणं यासिं जह० अणंतगु० सेडीए णेदव्वा । तदो णियत्तिदव्वं अब्भव०पाओग्गजहण्णं हिदिबंधस्स हेट्ठादो णिव्वग्गणकंडय० तासिं जा ज० द्विदी तिस्से उ० अणुभा० अणंतगु० । तदो समउ० ट्ठि० उ० अणंतगु० । दुसमउ० हि० उ० अणुभा० अणंतगु० । तिसमउ० ट्ठि० उ० अणु० अणंतगु० । एवं णीदं याव ताव अब्भव०पाओं. ज. द्वि. समऊणा त्ति । तदो अब्भव०पाओं ज० बंध हैं । अभव्यप्रायोग्य स्थितिबन्धसे अधस्तन जो स्थितिबन्धस्थान हैं, वे पल्यके असंख्यातवें भाग । अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक निरन्तर रूपसे प्ररूपणा की है।फिर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे निर्वगणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ पीछे जाकर जो स्थिति है, उस स्थितिके उत्कृष्ट अनुभागसे अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। दो समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। तीन समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग उतना ही है। इस प्रकार सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण स्थितियोंका पन्य अनुभागबन्ध तुल्य है। यहाँ जिन स्थितियांका जघन्य अनुभाग तुल्य है उनकी परिवर्तमान जघन्यानुभागबन्धप्रायोग्य संज्ञा है। फिर परिवर्तमान जघन्य अनुभागबन्धप्रायोग्य स्थितियोंमें से उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागसे एक समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। दो समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। तीन समय अधिक स्थितिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार असंख्यात स्थितियों तक जानना चाहिए। ये असंख्यात स्थितियाँ निर्वर्गणाकाण्डकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इतनी मात्र स्थितियोंका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणित श्रेणिरूपसे ले जाना चाहिए। फिर लौटकर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थिति बन्धसे अधस्तन जो निर्वर्गणाकाण्डकमात्र स्थितियाँ हैं उनमेंसे जो जघन्य स्थिति है, उसका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे एक समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे दो समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तीन समय अधिक स्थितिका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा है। इस प्रकार अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिसे एक समय कम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। फिर अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे एक १. ता० प्रतौ पुणं पमाणं कादूण इति पाठः । २. ता० प्रतौ हिबं[धा]दो णिव्वग्गण- इति पाठः। ३. ता० प्रतौ विसमऊ० हि० इति पाठः। ४. श्रा० प्रतौ तुल्ला इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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