Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 398
________________ द्विदिसमुदाहारो दु गुणवड्डि- हाणि थोवाणि । एगट्ठिदिअणुभागबंधज्झवसाणदु गुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि असंखेज्जगुणाणि । एवं आउगवजाणं सव्वअप्पसत्यपगदीणं सो चेव भंगो । ६४८. सादस्स उक्कस्सियाए द्विदीए अणुभागबंधज्झवसाणेहिंतो तदो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो ओसकिंदृण दुगुणवड्डिदा । एवं दुगुणवड्डिदा दुगुण० याव जहणियाट्ठिदिति । एगहिदिअणुभाग ० दुगुणवड्ढि हाणिट्ठाणंतराणि असंखे आणि पलिदोवमवग्गमूलाणि' । णाणाडिदिअणुभा० दुगुणवड्डि- हाणिट्ठाणंतराणि अंगुलवग्गमूलच्छेदणयस्स असंखेज्जदिभागो । ाणादिअणुभागबंध • दुगुणवड्डि-हाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि । एयट्ठिदिअणुभा० दुगुणवड्डि- हाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जगुणं । एवं आउगवजाणं सव्वपसत्थपगदीणं सो चेव भंगो । एदेण बीजेण एवं अणाहारए त्ति णेदव्वं । एवं परंपरोवणिधा समत्ता | अणभागबंधज्झवसाणहाणाणि ३८९ ६४९. याणि चैव अणुभागबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ताणि चैव अणुभागबंधद्वाणाणि । अण्णाणि पुणो परिणामट्ठाणाणि ताणि चेव कसाउदयद्वाणाणि ति भणति । मदियावरणस्स जहण्णिगे कसाउदयट्ठाणे असंखेज्जा लोगा अणुभागबंधज्झवअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसान द्विगुणवृद्धि - द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार आयुके सिवा सब अप्रशस्त प्रकृतियोंका वही भङ्ग है । ६४८. सातावेदनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों से पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्प पीछे जाने पर वे दूने होते हैं । इस प्रकार जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक' वे दूने - दूने होते जाते हैं । एकस्थितिअनुभागवन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि- द्विगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसान द्विगुणवृद्धि -द्विगुणहानिस्थानान्तर अङ्गुलके प्रथम वर्गमूलके अर्धच्छेदों के असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । नानास्थितिअनुभागबन्धाध्यवसा नद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं । इनसे एकस्थितिअनुभागबन्धाध्यवसानद्विगुणवृद्धि द्विगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार आयुओंके सिवा सब प्रशस्त प्रकृतियोंका वही भङ्ग है । इस बीज पदके अनुसार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — यहाँ सब प्रकृतियोंकी जघन्यादि या उत्कृष्टादि किस स्थिति में रहनेवाले अनुभागबन्धके कितने अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान हैं और वे किस स्थान पर जाकर दूने या आधे होते हैं, इस बातका प्रशस्त और अप्रशस्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा विचार किया गया है । इसे परम्परोपनिधा कहते हैं; क्योंकि इसमें एकके बाद दूसरी स्थिति के अनुभागअध्यवसानस्थानोंका विचार न कर परम्परया इस बातका विचार किया गया है। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार परम्परोपनिधा समाप्त हुई । अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान ६४९. जो अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान हैं वे ही अनुभागबन्धस्थान हैं । तथा अन्य जो परिणामस्थान हैं वे ही कषायउदयस्थान कहे जाते हैं । मतिज्ञानावरणके जघन्य कषायउदयस्थानमें असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागबन्धाध्यवसानस्थान होते हैं । दूसरे कषाय उद्य१. ता० प्रतौ द्वाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलाणि इति पाठः । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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