Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 395
________________ ३८६ पच्चक्खाण ०४ अत्थि । ६४३. कम्म० ओघं । णवरि चदुआउ० - आहार ० - णिरयगदिं वज सेसं कादव्वं । एवं अणाहार० । अवगद० ओघं । एवं सुहुमसं० । मदि० सुद० असंज ० - अब्भव ०मिच्छा० ओघं । एवं विभंग० । आभिणि० सुद० अधि०-सम्मा०- खइग०-वेदग ०. उवसम० - सासण० -सम्मामि० ओघं । णवरि अप्पप्पणो पगदिविसेसो णादव्वो । 1 महाबंचे अणुभागबंधाहियारे ६४४. किष्ण - पोल-काऊणं ओघं । तेउ० ओवं । णिरयाउ ० - णिरयगदिं वज । एवं पम्माए वि । सुक्काए' ओघो । दोआउ०- णिरय ० - तिरिक्खगदि वज । असण्णीसु सव्वबट्टणि मिच्छ० । सादा० असं० । जस०- उच्चार असं० गुणही ० | देवग० असं०गुणही ० । कम्म० असं ० गुणही ० | तेजा० असं ० गुणही ० | वेड व्वि० असं० गुणही ० । उवरि तिरिक्खोधं । एवं परत्थाणप्पा बहुगं समत्तं । एवं पगदिसमुदाहारो समत्तो । कि इनमें आहारकशरीर है । संयतासंयत जीवोंका भङ्ग परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनके प्रत्याख्यानावरणचतुष्क हैं । ६४३. कार्मणकाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि चार आयु, आहारकशरीर और नरकगतिको छोड़ कर शेषका अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए । अपगतवेदी जीवों में ओघके समान भङ्ग है । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इसी प्रकार विभङ्गज्ञानी जीवोंके जानना चाहिए | आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यदृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतिविशेष जाननी चाहिए। ६४४. कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है । पीतलेश्यामें ओघके समान भङ्ग है। मात्र नरकायु और नरकगतिको छोड़कर यह अल्पबहुत्व कहना चाहिए । इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार शुकुलेश्यामें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि दो आयु, नरकगति और तिर्यञ्चगतिको छोड़कर यह अल्पबहुत्व कहना चाहिए । असंज्ञियों में मिथ्यात्वके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान सबसे बहुत हैं। इनसे सातावेदनीयके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे यशःकीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे होन हैं । इनसे देवगतिके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे कार्मणशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे तैजसशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन हैं । इनसे वैक्रियिकशरीरके अनुभागबन्धाध्यवसान स्थान असंख्यातगुणे हीन है । इससे आगे सामान्य तिर्यखों के समान भङ्ग है। इस प्रकार परस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । इस प्रकार प्रकृतिसमुदाहार समाप्त हुआ । १. आ० प्रतौ वि । णवरि सुक्काए इति पाठः । २. ता० प्रतौ साद० अ [ज] स० उच्चा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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