Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 376
________________ वढी कालो कालो 0 ६२२. कालानुगमेण दुवि० । ओघे० पंचणा० छदंस ० -अडक० -भय-दु० - तेजा० क० - वण्ण०४- अगु० - उप० - णिमि० - पंचंत० छवड्डि - छहाणि - अवट्ठिदबंधगा केवचिरं कलादो त ? सव्वद्धा । अवत्त० ज० ए०, उ० संर्खेज० | थीणगि ०३ - मिच्छ०अट्ठक० - ओरा ० तेरसपदा सव्वद्धा । अवत० ज० ए०, उ० आवलि० असंखें० । सादादिदंडयस्स चोइसपदा सव्वद्धा । तिण्णिआउ० पंचवड्डि- पंचहाणि-अवहि ० -अवत्त ० ज० ए०, उ० आवलि० असंखे । अनंतगुणवड्डि-हाणि० ज० ए०, उ० पलि० असं० । वेउव्वियछ० बारसपदा ज० ए०, उ० आवलि० असं० । अणंतगुणवड्डि ३६७ अतः इन प्रकृतियोंके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है । मात्र ऐसी अवस्थामें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, अतः इनके अवक्तव्ये पदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मनुष्यों और तिर्यनोंके देवों और नारकियोंमें उत्पन्न होनेपर प्रथम समय में औदारिकशरीरका अवक्तव्यबन्ध होता है और यह स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण होनेसे इसके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। नारकियों और देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करनेवाले जीवोंके वैक्रियिकद्विकका नियमसे बन्ध होता है, अतः इनके तेरह पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मात्र ऐसे समयमें इनका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इस अपेक्षासे स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । स्वस्थानविहार के समय देवोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध सम्भव है, अतः इसके तेरह पदोंकी मुख्यतासे स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। तथा इसका अवक्तव्यपद जो दूसरे और तीसरे नरकमें उत्पन्न होकर इसका बन्ध करने लगते हैं उनके, या उपशमश्रेणिसे गिरते समय या ऐसे मनुष्योंके इसके बन्धके समय मर कर देव होनेपर होता है । यतः ऐसे जीव संख्यात हैं, अतः इसके अवक्तव्यपदकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष सातावेदनीय आदि प्रकृतियोंके चौदह पदोंका बन्ध एकेन्द्रिय आदि सब जीव करते हैं, अतः इन प्रकृतियोंके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सब लोकप्रमाण कहा है । शेष कथन भुजगार अनुयोगद्वारको लक्ष्य में रखकर घटित कर लेना चाहिए । काल ६२२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवftraपदके बन्धक जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, आठ कषाय और औदारिकशरीर के तेरह पदोंके बन्धक जीवका सब काल है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सातावेदनीय आदि दण्डकके चौदह पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । तीन आयुओंकी पाँच वृद्धि, पाँच हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। वैक्रियिक छहके बारह पदोंके बन्धक जीवोंका जघन्य For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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