Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 368
________________ वड्ढीए समुक्त्तिणा ३५९ मि०-आहार-आहारमि०तिणि वि० तु०। कम्मइ०-अब्भव' ०-सासण०-असण्णिअणाहारए ति णिरयभंगो।। ६१०. आभिणि-सुद०-ओधि० पढमदंडओ ओघ । मणुस० सव्वत्थो० ज० हाणी । वड्डी अवट्ठाणं दो वि तु० अणंतगु० । एवं सव्वसंकिलिट्ठाणं पगदीणं । एवं मणप०-संज०-सामा०-छेदो०-परिहार०-संजदासंज-ओघिदं०-सम्मा०-खइग-वेदग०उवसम-सम्मामि०। अवगदवे० सुहुमसं० सव्वत्थो० ज० हाणी । [ज० ] वड्डी अणंतगु० । परिहार०-तेउ०-पम्म० अप्पसत्थाणं पगदीणं सव्वत्थो० ज० हाणी । वड्डी अवट्ठाणं अणंतगु०। एवं पदणिक्खेवे त्ति समत्तं । वड्ढी समुकित्तणा ६११. वड्डिबंधे त्ति तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-समुकित्तणा याव अप्पाबहुगेत्ति । समुकित्तणा दुवि०-ओघे० आदे। ओघे० सव्वपगदीणं अत्थि छवड्डि• छहाणि० अवहि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिं०-तस० २-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरा०-आभिणि-सुद-ओधि०-मणपज०-संज०-चक्खु०पद तुल्य हैं। औदारिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंके तीनों ही पद तुल्य हैं। कामेणकाययोगी, अभव्य, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है। ६१०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें प्रथम दण्डक ओघके समान है। मनुष्यगतिकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे वृद्धि और अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार संक्लेशसे जघन्य अनुभागबन्धको प्राप्त होनेवाली सब प्रकृतियोंके विषयमें जानना चाहिए। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। परिहारविशुद्धिसंयत, पीतलेश्या और पद्मलेश्यामें अप्रशस्त प्रकृतियोंकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य बृद्धि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। वृद्धि समुत्कीर्तना ६११. वृद्धिबन्धका प्रकरण है । उसमें ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं। यथा-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तना दो प्रकारको है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इसी प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककायोगी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षु १. ता प्रतौ आहारमि० कम्मइ० तिण्णि वि० तु. अब्भव०. आ० प्रतौ आहारमि० कम्मइ० तिण्णि वि० । अन्भव० इति पाठः । २. ता० प्रतौ सुहुमसं० ज० (स) व्वत्थो० हा०. आ० प्रतौ सुहुमसं० सव्वत्यो हाणी इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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