Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 367
________________ ३५८ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे ६०८. जह० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणाo-णवदंस-मिच्छ०सोलसक०-पुरिस०-हस्स-रदि-भय-दु०-अप्पसत्थव०४-उप०-पंचंत० सव्वत्थो० ज० हा०। ज० वड्ढी' अणंतगु० । सादासाद०-चदुणोक०-चदुआउ०-तिगदि-पंचजा०पंचसरीर-छस्संठा०-तिण्णिअंगो०-छस्संघ०-पसत्थ०४-तिण्णिआणु०-अगुरु०३-आदाउज्जो०-दोविहा०-तसादिदसयु [णिमि० ] उच्चा'० ज० वडढी हाणी अवट्ठाणं च तिणि वि तुल्लाणि । तिरिक्खगदितिगं तित्थ० सव्वत्थो० ज० हाणी। वड्डी अवट्ठाणं च दो वि तु० अणंतगु० । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि०-ओरा०-इत्थि०-पुरिस०.णस०-कोधादि४-मदि०-सुद०-असंज०-चक्खु०अचक्खु -भवसि०-मिच्छा०-सण्णि-आहारए ति । णवरि मणुस०३-ओरा०-इत्थि०पुरिस० तिरिक्खगदितिग० सादभंगो। ६०९. णिरएसु थीणागिद्धि०३-मिच्छ०-अणंताणु०४-तिरिक्ख०३ ओघं । सेसाणं तिण्णि वि तुल्लाणि । एवं सत्तमाए । एवमेव छसु उवरिमासु । तिरिक्ख०३ सादभंगो। तिरिक्खेसु णिरयभंगो। अपञ्चक्खाण०४ ओघ । सव्वदेव०-वेउवि०-वेउवि०मि० णिरयभंगो। सव्वअपज०-एइंदि०-विगलिं०-पंचकायाणं च तिणि वि तु० । ओरा० ६०८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, अप्रशस्त वर्णचतुष्क,. उपघात और पाँच अन्तरायकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। इससे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणो है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकपाय, चार आयु, तीन गति, पाँच जाति, पाँच शरीर, छह संस्थान, तीन आंगोपांग, छह संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, तीन आनुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, दो विहायोगति, सादि दस युगल, निर्माण और उच्चगोत्रकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही तुल्य हैं । तिर्यश्चगतित्रिक और तीर्थङ्करकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है । जघन्य वृद्धि व अवस्थान दोनों ही तुल्य होकर उससे अनन्तगुणे है। इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पश्चन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँची मनोयोगो, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सातावेदनीयके समान है। ६०९. नारकियोंमें स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और तिर्यश्चगतित्रिकका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके तीनों ही पद तुल्य हैं। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इसी प्रकार पहलेकी छह पृथिवियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्चगतित्रिकका भंग सातावेदनीयके समान है। तिर्यश्चोंमें नारकियोंके समान भंग है। अप्रत्याख्यानावरण चारका भंग ओघके समान है । सब देव, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है। सब अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें सब प्रकृतियोंके तीनों ही १ ता० प्रतौ ज० हा० । वड्डी इति पाठः । २. ता० आ० प्रत्योः तसादिदोण्णियु० उच्चा० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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