Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 370
________________ ३६१ वड्ढीए कालो अवत्त० णत्थि । सामाइ०-छेदो० पंचणा०-चदुदंस'०-लोभसंज०-उच्चा०-पंचंत० अस्थि छवड्डि० छहाणि० अवढि० बंधगा य । एवं समुक्त्तिणा समत्ता सामित्तं ६१४. सामित्ताणुगमेण दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० पंचणा-छदंस०-चदुसंज०भय-दु०-तेजा०-क०-वण्ण० ४-अगु-उप०-णिमि०-पंचंत० छवड्डि० छहाणि० अवढि० क० ? अण्ण० । अवत्त० क० ? अण्ण० उवसा० परिवद० मणुसस्स वा मणुसीए वा पढमसमयदेवस्स वा । एदेण कमेण भुजगारसामित्तभंगो अवसेसाणं सव्वाणं । एवं याव अणाहारए ति णादव्वं । कालो ६१५. कालाणुगमेण दुवि० । ओघे० सव्यपगदीणं पंचवड्डि० पंचहाणिबंधगा केवचिरं कालादो होदि ? ज० ए०, उ० आवलि० असंखें भागो। अणंतगुणवड्विहाणि० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० सत्तट्ट सम० । अवत्त० ज० [उ०] ए. । एवं याव अणाहारए ति णेदव्वं । है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवों में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, लोभ संज्वलन, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव हैं । शेष भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार समुत्कीतना समाप्त हुई। स्वामित्व ६१४. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुम्लघ, उपघात, निर्माण और पांच अन्तरायकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितपदके बन्धक जीव कौन है ? अन्यतर जीव बन्धक है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीव कौन हैं? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला अन्यतर मनुष्य, मनुष्यनी और प्रथम समयवर्ती देव अवक्तव्यपदका बन्धक है। शेष सबका इसी क्रमसे भुजगारानुगमके स्वामित्वके समान भङ्ग है। अनाहारक तक इसी प्रकार जान लेना चाहिए। काल ६१५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओबसे सब प्रक्रतियोकी पाँच द्धि और पाँच हानिके बन्धक जीवोंका कितना काल है? जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुद्रत है। अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है। अवक्तव्यपदके बन्धक जावाका जघन्य आर उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। १. आ० प्रती पंचणा. पंचदंस• इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426