Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 272
________________ भुजगारबंधे अंतरानुगमो २६३ वण्ण०४ - अगु० -उप० - णिमि० पंचंत० भुज० - अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि० ज० ए०, उ० असंखैज्जा लोगा । सादासाद ० - इत्थि० - पुरिस०-हस्स-रदि-अरदि-सोगथिराथिर - सुभासुभ-जस० - अजस० भुज० -- अप्पदे० - अवद्वि० णाणा० भंगो । अवत्त० ज० उ० अंतो० । णवुंस० पंचसंठा०--ओरालि० अंगो० -- इस्संघ० - अप्पसत्थ० -- दूर्भाग-- दुस्सर--अणादें ● ० भुज० -- अप्पद० ज० ए०, अवत्त० ज० तो ० उ० तिण्णिपलि० दे० । अवद्वि० ओघ । [णवरि ओरालि० अंगो० अवत्त० उ० तेत्तीसं सादि० । ] चदुआउ०- वेडव्वियछ० - मणुसगदितिगं ओघं । तिरिक्ख० तिरिक्खाणु० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० ऍक्कतीसं ० सादि० । अवद्वि० अवत्त ० श्रघं । चदुजादि आदाक्यावर ०४ भुज० अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस • सादि० ! अवद्वि० ओघं । उ० तैंतीसं ० पंचि००- पर० - उस्सा ० -तस०४ तिष्णिप० णाणाभंगो । अवत्त० ज० तो ०, सादि० । ओरालि० भुज० - अप्प ० ज० ए०, उ० तिण्णि पलि० दे० । अवधि ०अवत्त० ओघं० । समचदु० -- पसत्थ० - सुभग- सुस्सर - आदें० तिष्णिप० सादभंगो । अवस० ज० अंतो०, उ० तिणिपलि० दे० । उज्जो० भुज० - अप्प० ज० ए०, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पाँच अन्तराय भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तमुहूर्त है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । नपुंसकवेद, पाँच संस्थान, औदारिकाङ्गोपाङ्ग, छह संहनन, अप्रशस्त विहायोगति, दुभंग, दुःस्वर और श्रनादेयके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और इनका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवस्थितपदका अन्तर काल के समान है । इतनी विशेषता है कि औदारिक आङ्गोपाङ्गके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। चार आयु, वैक्रियिक छह और मनुष्यगतित्रिकका भङ्ग ओघके समान है । तिर्यगति और तिर्यगत्यानुपूर्वीके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक इकतीस सागर है । अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल के समान है । चार जाति आतप और स्थावर आदि चारके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इनका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितबन्धका अन्तर ओघ के समान है । पञ्चेन्द्रियजाति, परघात, उच्छ्वास और त्रसचतुष्कके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। औदारिकशरीर के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य | अवस्थित और अवक्तव्यपदका अन्तरकाल ओघके समान है । समचतुरस्रसंस्थान, प्रशस्त विहायोगति, सुभग, सुस्वर और श्रदेयके तीन पदोंका भङ्ग सातावेदनीय समान है । अवक्तव्य पद का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पत्य है । उद्योतके भुजगार १. आ० प्रतौ श्रजस० श्रप्पद० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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