Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 310
________________ भुजगारबंधे फोसणं ३०१ ५२६. बुंस० पंचणा० - चदुदंस ० - चंदु संज० - पंचंत० तिण्णिप० सव्वलो० । पंचदंस०० - बारसक० - भय - दु० - तेजा० - क - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० तिण्णिप० सव्वलो० ० । अवत्त० र खेत्त० । सादादिदंडओ ओघं । मिच्छ० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त० बारह ० | दोआउ० - आहार ०२ - तित्थ • खेत्तभंगो० मणुसाउ० - वेउव्वियछ० तिरिक्खोघं । ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त० छच्चों० । अवगद ० सव्वपग० भुज० - अप्प ० - अवत्त० खेत्तभंगो । किया है । तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीवोंका भङ्ग ओघके समान है । ५२६. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, चार संज्वलन और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच दर्शनावरण, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके तीन पदोंके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम बारह बट े चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु, आहारकद्विक और तीर्थङ्करके सुब पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । मनुष्यायु और वैक्रियिक छहके सब पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन सामान्य तिर्यों के समान है । औदारिकशरीरके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अपगतवेदी जीवों में सब प्रकृतियों के भुजगार, अल्प और अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । विशेषार्थ — नीचे छठे नरक तक के नारकी मनुष्य व तिर्यों में मारणान्तिक समुद्घातके समय तथा तिर्यन और मनुष्य ऊपर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घातके समय यदि मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध करें तो सब मिलाकर कुछ कम बारह बटे चौदह राजूप्रमाण इस पदकी अपेक्षा स्पर्शन प्राप्त होता है, यह देखकर यहाँ मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पहले औदारिककाययोग में और वैक्रियिककाययोग में कुछ कमा चौदह राजूप्रमाण यह स्पर्शन कह आये हैं सो वहाँ भी ऊपर बादर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समु द्वात करा कर ले आना चाहिए । पहले कार्मणकाययोग में यह स्पर्शन कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजूप्रमाण कह आये हैं। ऊपर सात राजू तो स्पष्ट हैं। नीचे जो पाँच राजू कहे हैं सो उसका अभिप्राय है कि जो सातवें नरकका नारकी सम्यक्त्व या सासादनसे मिथ्यात्वमें आता है, वह मरकर उसी समय कार्मणकाययोगी नहीं हो सकता । यह पात्रता छठे नरक तक ही सम्भव है । आशय यह है कि कार्मणकाययोगके प्राप्त होनेके पूर्व समय में सम्यग्दृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि हो और कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि हो, यह पात्रता छठे नरक तक से मरनेवाले नारकी के ही हो सकती है। यही कारण है कि नीचे यह स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजप्रमाण कहा है । यह तो स्पष्ट है कि सासादनसम्यग्दृष्टि जीव मर कर नरकके सिवा तीन गतिमे उत्पन्न होता है और इन गतियों में उत्पन्न होने पर क्रमसे दो में औदारिकमिश्रकाययोग और देवों में वैक्रिकिमि काययोग होता है। तथा इन योगों के रहते हुए ही मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त होने पर प्रथम समय में मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध भी होता है। यही कारण है कि इन दोनों योगों में १. ता० प्रतौ चदुसं ( दंस० ) चदुसंज० इति पाठः । २. ता० आ० प्रत्योः तिण्णिप० अडतेरह • अवत्त० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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