________________
३०४
महाबचे अणुभागर्ववाहियारे
खेतभंगो । सेसाणं चत्तारिप ० छच्चों । असंजदेसु धुवियाणं तिष्णिप० सव्वलो० । से ओवं ।
५३०. किष्ण - गील- काऊणं धुवियाणं तिष्णिप० सव्वलो० । [मिच्छत्त • तिण्णिपदा० सव्वलो० ।] अवत्त० पं० - चत्तारि - वेचौ० । दोआउ० – देवगदिदुगं सव्वपदा To | मणुसाउ० तिरिक्खोघं । श्रीणगि ०३ - अनंताणु ०४ तिष्णिप० सव्वलो ० | अवत्त ० खेत ० ० । सादादिदंडओ ओघं । णिरय ० - वेउन्वि ० ' वेउव्वि० अंगो० - णिरयाणु ० तिष्णिप छच्चतारि-बेचो अवत्त० खैत ० । ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त ० छच्चत्तारि - बेचों० । तित्थ० तिष्णिप० खैत्त० । काऊए तित्थ • णिरयभंगो ।
०
०
पदों के बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियों के चार पदों के बन्धक जीवो ने कुछ कम छह बट े चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंयतों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । शेष भङ्ग
ओके समान है ।
५३०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वके तीन पदों के बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम पाँच बट े चौदह राजू, कुछ कम चार बट चौदह राजू और कुछ कम दो बट चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । दो आयु और देवगतिद्विकके सब पदों का भङ्ग क्षेत्रके समान है । मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । स्त्यानगृद्धि तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके तीन पदोंके बन्धक जीवों ने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सातावेदनीय आदि दण्डकका भङ्ग ओघके समान है । नरकगति, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और नरकगत्यानुपूर्वीके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । औदारिकशरीरके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू, कुछ कम चार बटे चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीर्थङ्करप्रकृतिके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । कापोतलेश्यामें तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है ।
विशेषार्थ --- सातवें नरकका नारकी नियमसे मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही मरण करता है । वहाँ से मरकर अन्य गतिमें उत्पन्न होते समय मिथ्यात्वका अवक्तव्यपद नहीं बन सकता । यही कारण है कि यहाँ कृष्णलेश्यामें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम पाँच बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम चौदह राजू और कुछ कम दो बटे चौदह राजू क्रमसे पाँचवें और तीसरे नरकसे मरकर और तिर्यों व मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर मिथ्यात्वका अवक्तव्यबन्ध करनेवालोंकी अपेक्षा कहा है । इन लेश्याओंमें मिथ्यात्वके अवक्तव्यपदका इससे अधिक स्पर्शन अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । इसी प्रकार औदारिकशरीरके अवक्तव्यपदका स्पर्शन उक्त लेश्याओंमें ले आना चाहिये | मात्र यह स्पर्शन तिर्यों और मनुष्योंके नरकमें उत्पन्न करा कर प्रथम समय में प्राप्त
१. आ० प्रतौ ओघं । वेउव्वि० इति पाठः । २. आ० प्रतौ अवन्त० खेत्त० ओरालि० तिष्णिप० सव्वलो० । अवत्त छच्चत्तारिबेचोद्द० । अवत० खेत० । ओरालिं० इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org