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अवच० खेरा० । सेसाणं सव्वप० अट्ठचो० ।
५३२. सुक्काए पंचणा० - छदंस० - अडक० -भय- दु० देवग० – पंचिं० - तिष्णिसरीर - वेड ० अंगो० - वण्ण ०४ - देवाणु ० - अगु०४ -तस० ४ - णिमि० - तित्थ० - पंचत०
महाबंचे अणुभागबंधाहियारे
राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । शेष प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ — जो पीतलेश्यावाले जीव ऊपर देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, उनके उस समय स्त्यानगृद्धि तीन आदिका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। मात्र सातावेदनीय, असातावेदनीय और मिथ्यात्व आदिका अवक्तव्यबन्ध एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घातके समय भी होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। यहाँ एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय अनन्तानुबन्धीका अवक्तव्यबन्ध नहीं कराया है और मिथ्यात्वका भवक्तव्यबन्ध कराया है । इससे स्पष्ट है कि सासादन गुणस्थानवाला जीव सासादनको प्राप्त करते समय प्रारम्भिक कालमें एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात नहीं करता और इसलिए वह मर कर एकेन्द्रियोंमें जन्म भी नहीं लेता । किन्तु ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि होकर प्रथम समयमें ही एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात कर सकता है - यह मिथ्यात्वके अवक्तव्यबन्धके स्पर्शनसे ही स्पष्ट है । पीतलेश्याके साथ तिर्यश्च और मनुष्य यदि देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करें तो कुल स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण होता है । इसीसे अप्रत्याख्यानावरण चारके अवक्तव्यपदका स्पर्शन कुछ कम डेढ़ बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। यहाँ संयत मनुष्योंको और संयतासंयत तिर्यों और मनुष्योंको मारणान्तिक समुद्धात करनेके प्रथम समयमें असंयत कराके यह स्पर्शन लाना चाहिए । किन्तु ऐसे तिर्यों और मनुष्योंके मारणान्तिक समुद्धातके समय देवगतिचतुष्कका अवक्तव्यबन्ध नहीं होता, इसलिए इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है, क्योंकि जो देवोंमें मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, उनके पहलेसे ही इन प्रकृतियोंका बन्ध होता रहता है । पद्मलेश्यामें कुछ कम नौ बटे चौदह राजूप्रमाण स्पर्शन नहीं होता, क्योंकि इस लेश्यावाले जीव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते, इसलिए कुछ प्रकृतियोंको छोड़कर इस लेश्यामें शेष सब प्रकृतियोंके सम्भव पदोंके बन्धकै जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। जिन प्रकृतियोंके सम्बन्धमें विशेषता है, उसका खुलासा इस प्रकार है - अप्रत्याख्यानावरणका बन्ध नहीं करनेवाले तिर्यश्च और मनुष्य देवोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेके प्रथम समयमें असंयत होकर इनका बन्ध करें, यह सम्भव है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन कुछ कम पाँच बढे चौदह राजुप्रमाण है, अतः यहाँ इनके अवक्तव्य पदके बन्धक जीवों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। तिर्यन और मनुष्य देवों में जन्म लेनेके प्रथम समयमें औदारिकद्विकका नियमसे अवक्तव्यबन्ध करते हैं और पद्मलेश्यामें ऐसे जीवों का भी स्पर्शन कुछ कम पाँच राजुप्रमाण होता है, अतः यह भी उक्त प्रमाण कहा है। देवगतिचतुष्कके अवक्तव्यबन्धके लिए जो युक्ति पीत लेश्यामें दी है वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। तदनुसार इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है ।
५३२. शुकुलेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, सचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके तीन पदोंके बन्धक जीवोंने कुछ
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