Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 324
________________ भुजगारवंचे अंतरं अवत्त० ज० ए०, उ० अंतो० । थीणगिद्धिदंडओ ओघभंगो। सत्तमाए दोगदि-दोआणु०-दोगो० थीणगिद्धिभंगो। ५४४. तिरिक्खेसु धुविगाणं भुज०-अप्प०-अवष्टि. णत्थि अंतरं । सेसं ओघं ओरालियमि०-कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०-तिष्णिले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि०अणाहारए त्ति । णवरि ओरालिमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंचग० भुज.. अप्प० ज० ए०, उ० मासपुध० । अवढि० ज० ए०, उ० असंखें. लो। गवरि तित्थ० भुज-अप्प० ज० ए०, उ० वासपुधः । अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। स्त्यानगृद्धिदण्डकका भङ्ग ओघके समान है। मात्र सातवीं पृथिवीमें दो गति, दो आनुपूर्वी और दो गोत्रका भङ्ग स्त्यानगृद्धिके समान है। विशेषार्थ—हम पहले ही बतला आये हैं कि तीर्थङ्कर प्रकृतिका अवक्तव्यपद नरकमें भी सम्भव है, इसलिए यहाँ ओघ प्ररूपणा बन जाती है। किन्तु एक उपदेश ऐसा भी है कि तीर्थक्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाला जीव दूसरे और तीसरे नरकमें अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इस उपदेशके अनुसार तीर्थङ्कर प्रकृतिके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष प्रकृतियोंका बन्ध यहाँ निरन्तर होता है, इसलिए उनके भुजगार और अल्पतर पदके अन्तरका निषेध किया है और अवस्थितपदका अन्तर परिणामोंके अनुसार कहा है। तथा परावर्तमान या अध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । सातवें नरकमें तिर्यश्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी और नीचगोत्रका बन्ध मिथ्यादृष्टिके तथा मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और उच्चगोत्रका बन्ध सम्यग्दृष्टिके होता है, इसलिए स्त्यानगृद्धिके समान भङ्ग बन जाता है। ५४४. तिर्यलोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार औदारिकमि योगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि तीर्थङ्करप्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ—सम्यग्दृष्टि नारकी, मनुष्य और देव मर कर औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें यदि अन्तरसे उत्पन्न हों तो कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक मासपृथक्त्वके अन्तरसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन मार्गणाओंमें देवगतिचतुष्कके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मासपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले नारकी और देव उक्त तीन मार्गणाओंमें यदि अन्तरसे उत्पन्न होते हैं तो कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे उत्पन्न होते हैं, अतः इन मार्गणाओंमें तीर्थङ्कर प्रकृतिके भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426