Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 333
________________ ३२४ महाबंधे अणुभागबंधाहियारे अवत्त० णत्थि । संजदासंज०१ अणुदिसभंगो । देवाउ० ओघ । तित्थ० मणुसि भंगो। असंजदे धुविगाणं तिरिक्खोघं । सेसाणं ओघं । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो । ५६०. किण्ण-णील-काऊणं असंजदभंगो। किण्ण०-णील. तित्थ० वेउवि०मि० भंगो । काउ० णिरयभंगो तित्थग० । तेउ० देवभंगो। णवरि थीणगि०३-मिच्छ०-बारसक०-देवग०-ओरालि०-वेउ०-वेउ०अंगो०-देवाणु०-तित्थ० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवहि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज. विसे० । दोआउ० ओघं । मणुसाउ० देवभंगो । आहारदुर्ग ओघं । एवं पम्माए वि । णवरि ओरा अंगो० देवगदिभंगो। ५६१. सुक्काए पंचणा०-णवदंस-मिच्छ०-सोलसक०-भय-दु०-दोगदि-पंचिं०-चदुसरीर-दोअंगो०-वण्ण४-दोआणु०-अगु०४-तस०-४-णिमि०-तित्थ०-पंचंत० सव्वत्थो० अवत्त । अवहि० असं०गु० । अप्प० असं०गु० । भुज० विसे० । दोआउ०विशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं है। संयतासंयत जीवोंमें अनुदिशके समान भङ्ग है। मात्र देवायुका भङ्ग ओघके समान है। तथा तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग मनुष्यनियोंके समान है। असंयतोंमें ध्रवबन्ध वाली प्रकृतियोंका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ—यहाँ सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतमें शेष दो दर्शनावरण आदि दण्डकमें जुगुप्सा तक प्रकृतियाँ गिनाई हैं, शेष नहीं गिनाई हैं। वे ये हैं-देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थङ्कर । इस प्रकार दो दर्शनावरणसे लेकर तीर्थकर तक इन प्रकृतियोंके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं। तथा इन प्रकृतियोंके शेष पदोंका तथा अन्य सातावेदनीय आदि प्रतियोंका भङ्ग मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ५६०. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें असंयतोंके समान भङ्ग है। मात्र कृष्ण और नीललेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है और कापोतलेश्यामें तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है। पीतलेश्यामें देवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि स्त्यानगृद्धित्रिक, मिथ्यात्व, बारह कषाय, देवगति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग, देवगत्यानुपूर्वी और तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । दो आयुओंका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग देवोंके समान है। आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकाङ्गोपांगका भङ्ग देवगतिके समान है। ५६१. शुक्ललेश्यामें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, दो गति, पञ्चेन्द्रियजाति, चार शरीर, दो आङ्गोपांग, वर्णचतुष्क, दो आनुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, तीर्थङ्कर और पाँच अन्तरायके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पतर पदके बन्धक १. ता. प्रतौ णस्थि अंत० । संजदासंज० इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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