Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ ३२२ महाधे अणुभागधाहिया रे पसत्थाणं सव्वत्थो० अवत्त ० । अप्प० संजगु ० | भुज० संखें ० गु० । एवं सुहुमसं० । वरि अवत्त० णत्थि । O ५५६. कोधे णवुंसगभंगो । माणे पंचणा० चदुदंस० - तिण्णिसंज० - पंचंत० सव्वत्थो ० अवट्ठि ० | अप्पद० असं० गु० । भुज० विसे० | पंचदंस० - मिच्छ० - तेरसक० - भय० - दु०ओरा०-तेजा० क० - वण्ण ०४ - अगु० - उप० - णिमि० सव्वत्थो० अवत्त० । अवद्वि० अनंतगु० । अप्प० असं० गु० । भुज० विसे० | सेसं ओघं । एवं मायाए वि । वरि पढमदंडओ पंचणा० - चदुदंस ० दोसंज ० - पंचंत० । बिदियदंडओ पंचदंस० - मिच्छ०पोइसक० भयदु० - ओरा०- तेजा० क० वण्ण ०४- अगु० - उप० णिमि० लोभे एवं चेव । णवरि पढमदंडओ पंचणा० चदुदंस० पंचत० सव्वत्थो० अवहि० । भुज० । 3 अप्प० असं० गु० । विसे० ० । विदियदंडओ पंचदंस०-मिच्छ० सोलसक० -भय-दु० । उवरि ओघं । ५५७. मदि-सुदेसु धुत्रियाणं सव्वत्थो० अवद्वि० । अप्प०४ असं० गु० । भुज० पदके बन्धक जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंके जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि यहाँ अवक्तव्यपद नहीं है । ५५६. क्रोधकषायमें नपुंसकवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। मानकषाय में पाँच ज्ञानावरण, र दर्शनावरण, तीन संज्वलन और पाँच अन्तरायके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, तेरह कषाय, भय, जुगुप्सा औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणके अवक्तव्यपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवस्थितपदके बन्धक जीव अनन्तगुणे हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । शेष भङ्ग ओघ के समान है । इसी प्रकार मायाकषायमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, दो संज्वलन और पाँच अन्तराय रूप है । दूसरा दण्डक पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, चौदह कषाय, भय, जुगुप्सा, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माणरूप है । लोभकषायमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रथम दण्डक पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तरायके अवस्थितपदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे भुजगारपदके बन्धक जीव विशेष अधिक हैं । दूसरा दण्डक पाँच दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्सा रूप होकर आगे यह ओघके समान है । ५५७. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके अवस्थित पदके बन्धक जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अल्पतरपदके बन्धक जोव असंख्यातगुणे हैं । इनसे १. ता. प्रतौ सव्वत्थ० [अवत्त०] । अवहि० अप्प० इति पाठः । २. ता प्रतौ विदियदंडओ | ओघं पंचदंस०, आ. प्रतौ विदियदंडओ ओघं । पंचदंस० इति पाठः । ३. ता प्रतौ सव्वत्थो० [ अवत्त०] | अवहिं० | अप्प० इति पाठः । ४. ता० प्रतौ सव्वत्थो० [ अवत्त०] । अवट्टि० अप्प० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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