Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 320
________________ मुजगारवघे काठाणुगमो ५३९. तिरिक्खेसु धुविगाणं तिणिप० सव्वद्धा । सेसं ओघ । एवं ओरालि मि०. कम्मइ०-मदि०-सुद०-असंज०-तिष्णिले०-अब्भवसि०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारए त्ति। गवरि ओरालियमि०-कम्मइ०-अणाहारएसु देवगदिपंचग० सुज-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवढि० ज० ए०, उ० संखेंजस० । ५४०. अवगद०-सुहुमसंप० सव्वपग० भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतोः । आयुका बन्ध काल अन्तर्मुहूर्त है और इसमें भुजगार आदि तीन पदोंका जघन्य काल एक समय है। साथ ही नारकी, मनुष्य और देवोंका प्रमाण असंख्यात है। यह सब देखकर नरकायु, मनुष्यायु और देवायुके दो पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा इनके अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तीर्थङ्कर प्रकृतिके अन्य तीन पदोंका काल तो इसी प्रकार है, पर अवक्तव्यपदके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जो तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध करनेवाले मनुष्य नरकमें उत्पन्न होते हैं या उपशमश्रेणि पर चढ़ते हैं उन्हींके तीर्थकर प्रकृतिका अवक्तव्य बन्ध होता है। किन्तु ये कुल संख्यातसे अधिक नहीं हो सकते, अतः तीर्थकर प्रकृतिके अवक्तव्यबन्धका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यही युक्ति आहारकद्विकके अवस्थित और अवक्तव्यपदके कालके विषयमें जाननी चाहिए। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए उनके कथनको ओघके समान कहा है। ५३९. तिर्यश्चोंमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके तीन पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा है । शेष भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतरपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय है ओर उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। विशेषार्थ-इन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणि नहीं होती, इसलिए इनमें ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियोंके सब पदोंके बन्धक जीवोंका काल सर्वदा कहा है। जो सम्यग्दृष्टि तिर्यश्च और मनुष्य औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक होते हैं उन्हींके देवगतिपञ्चकका इन मार्गणाओंमें बन्ध होता है, इसलिये इनमें भुजगार और अल्पतर पदके बन्धक जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। एक साथ नाना जीव इन मार्गणाओंको प्राप्त हुए और उन्होंने एक समय तक भुजगार और अल्पतरपदका बन्ध किया तो जघन्य काल एक समय बनता है तथा निरन्तर क्रमसे यदि नाना जीव इन मार्गणाओं को प्राप्त होते रहते हैं तो इन पदों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बनता है। परन्तु ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक ही मार्गणाओं को प्राप्त होते हैं। अतः इन मार्गणाओं में उक्त प्रकृतियों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि कार्मणकाययोगमें और अनाहारक मार्गणामें दो-दो समयके फरकसे जीवोंको प्राप्त करा कर भुजगार और अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल लाना चाहिये; अन्यथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होना सम्भव नहीं है। शेष कथन सुगम है। ५४०. अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्यरायसंयत जीवों में सब प्रकतियों के भुजगार और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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