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भुजगारबंचे फोसर्ण घण्ण०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस० ४-सुभग-सुस्सर-आदें-णिमि०तित्थ०-उच्चा०-पंचंत० भुज०-अप्प०-अवहि. अहो । अवत्त० खेत्त० । णवरि मणुसगदिपंचग० अवत्त० छच्चों । सादासाद०-चदुणोक०-मणुसाउ०-थिरादितिष्णियु. चत्तारिपदा० अहचों'। अपञ्चक्खाण०४ तिण्णिप० अहचों । अवत्त० छचोंद । देवाउ०-आहार०२ ओघ । देवगदि०४ तिण्णिप० छच्चों । अवत्त० खेत । एवं ओधिदं०-सम्मादि०-वेदग० । मणपज्ज०-संजद० याव सुहुमसं० खेतभंगो।
५२९. संजदासंज. धुविगाणं सव्वप० छच्चों । देवाउ०-तित्थ० सव्वप० संहनन, वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थङ्कर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बट चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, मनुष्याय और स्थिर आदि तीन युगलके चारों' पदो के बन्धक जीवों ने कुछ कम आठ बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अप्रत्याख्यानावरण चारके तीन पदोंके बन्धक जीवो ने कुछ कम आठ बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। देवगतिचतुष्कके तीन पदो के बन्धक जीवों ने कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवो के जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानी और संयत जीवों से लेकर सूक्ष्मसाम्परायसंयत तकके जीवों का भङ्ग क्षेत्रके समान है।
विशेषार्थ—संयत मनुष्यों के तथा संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यञ्च और मनुष्यों के मर कर देवो में उत्पन्न होने पर मनुष्यगतिपञ्चकका अवक्तव्यबन्ध होता है। यतः इनका स्पर्शन कुछ कम छह बट चौदह राजूप्रमाण उपलब्ध होता है। अतः यहाँ मनुष्यगतिपञ्चकके अवक्तव्यपदके बन्धक जीवों का स र्शन उक्त प्रमाण कहा है। असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य मर कर प्रथम नरकमें भी जाते हैं और ऐसे जीवों के भी प्रथम समयमै उक्त प्रतियों का अवक्तव्य बन्ध होता है, पर इससे उक्त स्पर्शनमें कोई अन्तर नहीं आता; इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । संयत और संयतासंयत जीवों के मर कर देव होने पर अप्रत्याख्यानावरण चतुष्कका अवक्तव्यबन्ध होता है और इनका स्पर्शन भी कुछ कम छह बटे चौदह राजप्रमाण है। अतः इनके अवक्तव्यबन्धका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है । यद्यपि संयत मनुष्योंके और संयतासंयत तियञ्च व मनुष्यों के असंयत सम्यग्दृष्टि होने पर भी अप्रत्याख्यानावरण चारका अवक्तव्य बन्ध होता है,पर यह स्पर्शन पूर्वोक्त स्पर्शनमें सम्मिलित है; इतना यहाँ विशेष जानना चाहिये । शेष कथन स्पष्ट ही है।
५२९. संयतासंयत जीवों में ध्रुवबन्धवाली प्रकृतियों के सब पदों के बन्धक जीवो ने कुछ कम छह बट चौदह राजप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवायु और तीर्थङ्करके सब
१. ता. प्रतौ चत्तारिस ( पदा). अहचो, आ० प्रतौ चत्तारिस अडचो० इति पाठः ।
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