Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 274
________________ सुजगारबंधे छातराणुगमो • ? ४७८. आभिणि० -- सुद० -- श्रधि० पंचणा० छदंस० - चदुसंज० - पुरिस०-भयदु० - पंचिं ० -- तेजा ०. ०-- क० - समचदु० - वरण ०४ - - अगु०४ - पसत्थवि ० --तस०४ - सुभगसुस्सर - यादें - णिमि०[० उच्चा० - पंचंत० भुज ० - अप्पद० ज० ए०, उ० अंतो० । अवधि ० ज० ए०, उ० छाडि ० सादि० । अवत० ज० तो ० उ० छाबडि ० सादि० ! सादासाद० चदुणोक०-थिरादितिरिणयुग० तिष्णिपदा णाणा० भंगो । अवत्त० ज० उ० तो ० । अट्ठक० भुज० - अप्प० ओघं । अवद्वि० ज० ए०, उ० छावहि० सादि० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तैंतीसं ० सादि० | दोआउ० भुज० श्रप्प० ज० ए०, उ० तैंतीसं ० सादि० । अवद्वि० ज० ए०, उ० छावहि० सादि० । अवत्त० ज० अंतो०, उ० तैंतीसं० सादि० । णवरि देवाउ० अवद्वि० ज० ए०, उ० छावद्वि० दे० । मणुसगदिपंचग० भुज० - अप्प० ज० ए०, उ० पुव्वकोडी ० सादि ० अंतोमुडुत्ते णन्महि० । अवत ० ज० पलिदो ० सादि० वासपुधत्तेण सादि०, उ० तेत्तीसं० सादि० । अवद्वि० णाणा० भंगो | देवगदि ०४ - आहार०२ भुजे० -अप्प० ज० ए०, अक्त० ज० अंतो०, उ० तेत्तीस • सादि० । अवद्वि० णाणा० भंगो । तित्थ० ओघं । एवं अधिदं ० - सम्मा० । ० ४७८. श्रभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, पञ्च ेन्द्रियजाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रसचतुष्क, सुभग, सुस्वर आदेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है । अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और स्थिर आदि तीन युगल के तीन पदों का भङ्ग ज्ञानावरण के समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर तमुहूर्त है। आठ कषायोंके भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिकछियासठ सागर है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । दो आयुओंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक छियासठ सागर है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । इतनी विशेषता है कि देवायुके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छियासठ सागर है । मनुष्यगतिपञ्चकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है। और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक एक पूर्वकोटि है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर वर्षपृथक्त्व अधिकाधिक एक पल्य है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरण के समान है । देवगतिचतुष्क और आहारकद्विकके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । अवस्थितपदका अन्तर ज्ञानावरणके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग श्रधके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिए । १. ता० श्रा० प्रत्योः श्राहार० भुख० इति पाठः । ३४ Jain Education International २६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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