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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे
विगलिंदि० - बादरपुढ० - आउ० तेउ०- वाउ० पञ्जत्ता ०३ [० बादरपत्ते ०पजत्तगाणं च । णवरि तेउवाऊणं मणुसगदिचदुक्कं वञ्ज । वाऊणं जम्हि लोग० असंखेज्ज० तम्हि लोग ० संखेज्ज० ।
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५१८. मणुस ०३ पंचणा० णवदंस० - सोलसक' - बुंस ० -भय-दु० - तिरिक्ख ०-एईदि० -ओरा० -तेजा० क०- -हुंड ६० - वण्ण ०४ - तिरिक्खाणु० - अगु०४ - थावर ० - सुहुम ० -पञ्ज०अपज ०- - पत्ते० ०- साधार०-दुभ० - अणादे० - णिमि० णीचा० - पंचंत० तिष्णिप० लो० असं०
पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अनिकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अभिकायिक और वायुकायिक जीवोंमें मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर यह स्पर्शन कहना चाहिए। तथा जहाँ पर लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है, वहाँ वायुकायिक जीवोंमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहना चाहिए ।
विशेषार्थ – पञ्चेन्द्रियतिर्यश्व अपर्याप्तकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण बतलाया है । इस सब स्पर्शनके समय इनके ज्ञानावरणादिके तीन पद और सातावेदनीय आदिके चार पद सम्भव होनेसे यह स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पचेन्द्रियतिर्यचअपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में और मनुष्यों में जब मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब भी स्त्रीवेद आदिका यथायोग्य बन्ध होता है, पर ऐसे जीवोंका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इनके स्त्रीवेद आदिके सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यहाँ सब एकेन्द्रियों में यथायोग्य मारणान्तिक समुद्घात करते समय नपुंसकवेद आदिके तीन पद सम्भव हैं, इसलिए यहाँ इनके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। पर ऐसे समय में इनके इन प्रकृतियोंका अवक्तव्यपद नहीं होता, इसलिए इसकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। ऊपर बादर एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते समय इनके उद्योत और यशःकीर्तिके चार पद सम्भव हैं, इसलिए इन दो प्रकृतियों के चार पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटें चौदह राजूप्रमाण कहा है। इसी प्रकार बादरके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम सात बटे चौदह राजूप्रमाण घटित कर लेना चाहिए | पर इसका अवक्तव्य पद मारणान्तिक समुद्घातके समय नहीं होता, अतः इसकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है । जो पचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त सब एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी अयशःकीर्तिके तीन पद सम्भव हैं, अतः इस प्रकृतिके तीन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण कहा है। यहाँ सब अपर्याप्त आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ कही हैं, उनमें यह स्पर्शन बन जाता है। इसलिए उनमें यह स्पर्शन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र अनिकायिक और वायुकायिक जीवोंके मनुष्यगति आदि चारका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें इनका स्पर्शन नहीं कहना चाहिए। तथा वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाणं होनेसे इनमें लोकके असंख्यातवें भाग के स्थान में उक्त स्पर्शन कहना चाहिए ।
५१८. मनुष्यत्रिमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, भय, जुगुप्सा, तिर्यञ्चगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान,
१. ता० प्रतौ पंचणा० णवदंस० मिच्छ० सोलसक०, आ०प्रतौ पंचणा० छदंस० मिच्छ० सोलसक० इति पाठः ।
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