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फोसणपरूषणा
१७३ ३६६. णqसग० पंचणा०-णवदंस०-असादा०-मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोके०तिरिक्ख०--पंचसंठा-पंचसंघ०--अप्पसत्य०४-तिरिक्खाणु०-उप०-अप्पसत्य-अथिरादिछ०-णीचा०-पंचंत० उ० छच्चों, अणु० सव्वलो० । सादा०-तिरिक्खाउग०-मणुस० चदुजा०-ओरा०-तेजा०-क०--समचदु०-ओरा०अंगो०-वजरि०-पसत्य०४-मणुसाणु०अगु०३-आदाउ०--पसत्थ०--तस०४-थिरादिछ--णिमि०--उच्चा० उ० खेत०, अणु० सव्वलो० [हस्स-रदि० उ० छच्चों सव्वलो०,अणु० सव्वलो । ] दोआउ.-वेउव्वियछ०-आहारदुगं ओघं । मणुसाउ० तिरिक्खोघो। [ एइंदिय-थावरादि४ तिरिक्खोघं।] तित्यय० इत्थिभंगो। कम आठ बटे चौदह राजू और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजूप्रमाण कहा है। जो तिर्यश्च और मनुष्य एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उनके भी सूक्ष्मादिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागबन्भ होता है, इसलिए इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। पुरुषवेदी जीवोंमें भी यह स्पर्शन प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें स्त्रीवेदी जीवोंके समान कहा है। मात्र तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि पुरुषवेदी देव भी तीर्थङ्कर प्रकृतिका बन्ध करते हैं और इनका विहारादिकी अपेक्षा स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजू होनेसे पुरुषवेदी जीवोंके तीर्थङ्कर प्रकृतिकी अपेक्षा यह स्पर्शन भी पाया जाता है। इसलिए. यह स्पर्शन ओघके समान कहा है शेष कथन सुगम है।
३६६. नपुंसकवेदी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, तियञ्चगति, पाँच संस्थान, पाँच संहनन, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यजगत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त विहायोगति, अस्थिर आदि छह, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सातावेदनीय, तिर्यश्वायु, मनुष्यगति, चार जाति, औदारिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, औदारिक श्राङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराचसंहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुत्रिक, पातप, उद्योत, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य और रतिके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह राजू और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो आयु, वैक्रियिक छह और आहारकद्विकका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यायुका भङ्ग सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। एकेन्द्रियजाति और स्थावर आदि चारका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग स्त्रीवेदी जीवोंके समान है।
विशेषार्थ-नपुंसककोंमें तीन गतिके संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव प्रथम दण्डकमें कही गई प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं। इनका अतीत स्पर्शन उत्कृष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट परिणामोंके समय कुछ कम छह बटे चौदह राजूप्रमाण होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा नपुंसकवेदी सब लोकमें पाये जाते
१. ता० श्रा० प्रत्योः सोलसक. पंचणोक० इति पाठः। २. ता० श्रा. प्रत्योः अथिदिपंच णीचुचा इति पाठः ।
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