Book Title: Mahabandho Part 5
Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 245
________________ २३६ महापंधे अणुभागबंधाहियारे णीचा० अर्णतः । अजस० अणंत० । असाद० अणंत। जस०-उच्चा० दो वि तु० अणंत । साद० अणंत । तिरिक्खाउ० अणंत० । मणुसाउ० अणंत । एवं सत्तम पुढवीसु । णवरि छसु उवरिमासु णीचा अजस० ऍक्कदो भाणिदव्वं । ४४५. तिरिक्खेसु पढमपुढविभंगो याव आभिणि-परिभोगंतरा० दो वि तु० अणंत० । पञ्चक्रवाणमाणो अणंत० । कोधो विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । विरियंत. अणंत० । केवलणा०-केवलदं० दो वि तु० अणंत० । अपचक्रवाण-माणो अणंत० । कोधो विसे० । माया विसे० । लोभो विसे० । उवरि ओघं । एवं पंचिं०. तिरि०३ । णवरि एदेसु णीचा० अजस० ऍक्कदो भाणिदव्वा ।। ४४६. पंचिं०तिरि०अपज्ज०-मणुसअपज्जत्त-विगलिंदि०-पंचिंदि०-तस०अपज्ज. तिण्हंकायाणं च पढमपुढविभंगो। णवरि दोआउ० ओघं । एवं एइंदियाणं पि । णवरि तिरिक्खोघं णीचा० अणंत। अजस० अणंत । एवं तेउ-वाउणं पि । णवरि मणुसगदिचदुक्कं वज्ज । देवाणं णेरइगभंगो । मणुस०३-पंचिंदि०-तस०२-पंचमण०अधिक है। इससे नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अयशाकीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे असातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे यश कीर्ति और उच्चगोत्रके अनुभाग दोनों ही तुल्य हो कर अनन्तगुणे अधिक हैं। इनसे सातावेदनीयका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे तिर्यञ्चायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे मनुष्यायुका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पहलेकी छह पृथिवियोंमें नीचगोत्र और अयश कीर्ति को एकसाथ कहना चाहिए । ४४५. तिर्यवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरण और परिभोगान्तराय के अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं। इस स्थानके प्राप्त होने तक पहली पृथिवीके समान भंग है। इससे प्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे प्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे वीर्यान्तरायका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभाग दोनों ही तुल्य होकर अनन्तगुणे अधिक हैं । इनसे अप्रत्याख्यानावरण मानका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका अनुभाग विशेष अधिक है । इससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका अनुभाग विशेष अधिक है। इससे आगे ओघके समान भंग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें नीचगोत्र और अयश कीर्ति एकसाथ कहने चाहिए। ४४६. पञ्चन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्त, मनुष्यअपर्याप्त, विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियअपर्याप्त, सअपर्याप्त और तीन स्थावर कायिक जीवोंमें प्रथम पृथिवीके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें दो आयुओंका भङ्ग श्रोधके समान है। इसी प्रकार एकेन्द्रियोंमें भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें सामान्य तिर्यश्चोंके समान नीचगोत्रका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इससे अयशःकीर्तिका अनुभाग अनन्तगुणा अधिक है। इसी प्रकार अग्निकायिक और पायुकायिक जीवोंके भी जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें मनुष्यगतिचतुष्कको छोड़कर कहना चाहिए । देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। मनुष्यत्रिक, पञ्चन्द्रियद्विक, सद्विक, पाँचों १. ता. प्रा. प्रत्योः चतुण्डं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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