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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे २५४. अरदि० ज० बं० पंचणा-छदसणा०-सादावे०-बारसक-पुरिस०-भयदु०-मणुसग०-पंचिंदि०-ओरालि०- तेजा-क० -समचदु०-ओरालि०अंगो०-वज्जरि०पसत्यापसत्य०४-मणुसाणु०-अगु०४-पसत्यवि०-तस०४-थिर-सुभ-सुभग - सुस्सरआदें -जसगि०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत० णि. अणंतगुणभ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणम्भः । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० ।
२५५. तिरिक्खाउ० ज० ब० पंचणा-णवदसणा०-मिच्छ०-सोलसक०-भयदु०-तिरिक्ख०-पंचिंदि०- ओरालि०-तेजा-क० - ओरालि. अंगो० - पसत्थापसत्य०४तिरिक्खाणु०-अगु०४-तस०४-णिमि०-णीचा०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ० । सादासाद०-छस्संग-छस्संघ०-दोविहा०-थिरादिछयुग० सिया। तं तु०। सत्तणोक०उज्जो० सिया० अणंतगुणभ० । एवं मणुसाउँ० । णवरि सत्तणोक०-णीचा० सिया० अणंतगुणब्भ० । सादादि याव उच्चा० सिया० । तं तु० । मणुस०-मणुसाणु० अनन्तगुणा अधिक होता है।
२५४. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पश्चन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, वर्षभनाराच. संहनन, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र
और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२५५. तिर्यश्चायुके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण. नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तिर्यश्चगति, पश्चोन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी. अगुरुलघुचतुष्क, त्रसचतुष्क, निर्माण, नीचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगति और स्थिर आदि छह युगलका कदाचित् बन्ध करत हैं । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। सात नोकषाय और उद्योतका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार मनुष्यायुकी मुख्यतासे सन्निकषे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सात नोकषाय
और नीचगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। सातावेदनीयसे लेकर उच्चगोत्र तककी प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो जघन्य अनुभाग का भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका
१. ता. प्रतो. ज.ब.पं. (?) पंचणा० इति पाठः। इति पाठः।
२. ता. श्रा. प्रत्योः मणुसाणु
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