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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे [ दोविहा०-] तस-थावर-तिण्णियुग० सोधम्मभंगो। देवगदि० ज० बं० पंचिंदियादि णि अणंतगुणब्भ० । वेउव्वि०-वेउवि अंगो०-देवाणु० णि । तं तु०। एवं वेउव्वि०वेउव्वि०अंगो०-देवाणु० । ओरालि०-तेजा०-क०-पसत्थ०४-अगु०३-[ आदाउज्जोबादर-पज्जत्त-पत्ते०-] णिमि०[ तित्थ० ] सोधम्मभंगों' । थिरादितिण्णियुगलाणं [ज. बं० ] दोगदि० सिया० । तं तु० । देवगदि०४ सिया० अणंतगुणब्भ० । सेसं सोधम्मभंगो । [ आहारदु०-अप्पसत्थवण्ण४-उप० मणुसभंगो।] एवं पम्माए वि । णवरि पंचिंदि०-ओरालि०अंगो०--तस० सव्वाणं संकिलेस्सपगदीणं सहस्सारभंगो । तित्थय० देवभंगो।
१४७. सुक्काए सतण्णं क. ओघं । देवगदि०४-आहारदुगं पम्माए भंगो। सेसाणमाणदभंगो । अप्पसत्थ०४-उप० ओघं । अब्भव० मदिभंगो। णवरि अप्पसत्थवण्ण० ज० बं० तिरिक्व०-तिरिक्खाणु० सिया० । तं तु० । दोगदि-दोसरीर-दोअंगो०
त्रस, स्थावर और तीन युगलका भंग सौधर्मकल्पके समान है । देवगतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चन्द्रिय जाति आदिका नियमसे बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक आङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक श्राङ्गोपाङ्ग और देवगत्यानुपूर्वी का भङ्ग जानना चाहिए। औदारिक शरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुत्रिक, आतप, उद्योत, बादर, पर्याप्त प्रत्येक, निर्माण और तीर्थङ्करका भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है। स्थिर आदि तीन युगलके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव दो गतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है,तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। देवगति चतुष्कका कदाचित् बन्ध करता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। इसका शेष भङ्ग सौधर्म कल्पके समान है।
आहारकद्विक, अप्रशस्त वर्णचतुष्क और उपघातका भङ्ग मनुष्योंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यामें भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रिय जाति, औदारिक आङ्गोपाङ्ग, त्रस
और सर्व संक्लिष्ट परिणामोंसे बँधनेवाली सब प्रकृतियोंका भङ्ग सहस्रार कल्पके समान है । तथा तीर्थक्कर प्रकृतिका भङ्ग देवोंके समान है।
१४७. शुक्ललेश्यामें सात कोका भङ्ग ओघके समान है। देवगति चार और आहारक द्विकका भङ्ग पद्मलेश्याके समान है। शेष प्रकृतियोंका भङ्ग आनतकल्पके समान है। अप्रशस्त वर्ण चतुष्क और उपघातका भङ्ग ओघके समान है । अभव्योंमें सब प्रकृतियोंका भङ्ग मत्यज्ञानियों के समान है । इतनी विशेषता है कि अप्रशस्त वर्णके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव तिर्यञ्चगति और तिर्यश्चगत्यानुपूर्वीका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। दो गति, दो शरीर, दो
१. ता० श्रा. प्रत्योः णिमि० णि तं तु० सोधम्मभंगो इति पाठः । २. ता० श्रा० प्रत्योः श्रोघं ।
णामगदि देवगदि० इति पाठः। Jain Education International
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