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महाबंधे अणुभागबंधाहियारे पंचिंदि०-तेजाक०-पसत्यापसत्थ०४-अगु०४-पसत्य-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदेंणिमि०-पंचंत० णि. अणंतगुणब्भ०। सादासाद०-चदुणोक०-तिण्णिगदि-दोसरीरतिण्णिसंग०-दोअंगो०--तिण्णिसंघ०-तिण्णिआणु०-उज्जो०-थिराथिर-सुभासुभ-जस०अजस०-णीचुचागो० सिया० अणंतगुणब्भ० । एवं णवूस० । णवरि पंचसंठा०-पंचसंघ० सिया० अणंतगुणब्भः।
२२४. पुरिस० ज० ब० कोधसंजलणभंगो। णवरि चदुसंज०णि अणंतगुणब्भ
२२५. हस्स० ज० ब० पंचणा०--चदुदंसणा०-सादा०-चदुसंज०--पुरिस०जस०-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । रदि-भय-दु० णियमा। तं तु०। एवं रदिभय-दु० ।
२२६. अरदि० ज० बं० पंचणा०-छदसणा-सादा.-चदुसंज०-पुरिस०-भयदु०-देवगदि-पसत्थहावीस-उच्चा०-पंचंत० णि० अणंतगुणब्भ० । तित्थ० सिया० अणंतगुणब्भ० । सोग० णि । तं तु० । एवं सोग० । मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, पञ्चन्द्रिय जाति, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, प्रशस्त वर्णचतुष्क, अप्रशस्त वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर,
आदेय, निर्माण और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय, तीन गति, दो शरीर, तीन संस्थान, दो श्राङ्गोपाङ्ग, तीन संहनन, तीन आनुपूर्वी, उद्योत, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, यशःकीर्ति, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और उच्चगोत्रका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पाँच संस्थान और पाँच संहननका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२२४. पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाले जीवका भङ्ग क्रोध संज्वलनके समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है।
२२५. हास्यप्रकृतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । रति, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है, तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है। इसी प्रकार रति, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
२२६. अरतिके जघन्य अनुभागका बन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जगप्सा. देवगति आदि प्रशस्त अट्राईस प्रक्रतियाँ. उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है । शोकका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु यह जघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है और अजघन्य अनुभागका भी बन्ध करता है। यदि अजघन्य अनुभागका बन्ध करता है,तो वह छह स्थान पतित वृद्धिरूप होता है । इसी प्रकार शोककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए।
१. श्रा० प्रतौ पंचणा० सादा० इति पाठः।
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