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लब्धिसार
[ गाथा १६-१८ योग्य हैं, तथापि यहां इनकी बन्धव्युच्छित्तिका कथन विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उन प्रकृतियोंके बन्धयोग्य संक्लेशका उल्लंघनकर उनकी प्रतिपक्षात प्रवृतियों बन्ध की निमित्तभूत विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुए सर्वविशुद्ध इस जीवके उन प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति होनेमें कोई विरोध नहीं'। इन उपर्युक्त प्रकृतियोंके बन्धसे व्युच्छिन्न होनेपर अवशिष्ट प्रकृतियों को सम्यक्त्वके अभिमुख मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य तब तक बांधता है जबतक वह मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके चरमसमयको प्राप्त होता है ।
उपयुक्त ३४ बंधापसरणोंमें से चारोंगतिमें कौन-कौनसे बंधापसरणस्थान होते हैं तो कहते हैं
णरतिरियाणं श्रोषो भवणतिसोहम्मजुगलए बिदियं । तिदियं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥१६॥ ते चेव चोदसपदा अट्ठारसमेण वीणया होति । स्पणादिपुढविछक्के सणकुमारादिदसकप्पे ॥१७॥ ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा । माणद कप्पादुरिमगेवेज्जतोत्ति भोसरणा ॥१८॥
अर्थ-मनुष्य और तिर्यचोंमें प्रोघ अर्थात् चौंतीसबन्धापसरण होते हैं । भवनत्रिक और सौधर्मयुगलमें दूसरा, तीसरा, अठारहवां और तेईसवां प्रादि दश व अन्तिम ३४वां ये १४ बन्धापसरण होते हैं | रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथ्वियोंमें और सनत्कुमार आदि दशकल्पों (स्वर्गों) में उपर्युक्त १४ बन्धापसरगों में से १८वां बंधाएसरग नहीं होता ( शेष १३ बन्धापसरण होते हैं ) अानतकल्पसे लेकर उपरिम नौवें ग्रंवेयकपर्यन्त उपर्युक्त १३ स्थानोंमें से दूसरा और २३वां बन्धापसरण नहीं होते (शेष ११ बन्धापसरण होते हैं)।
विशेषार्थ-प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख मनुष्य व तिर्यंचोंके पूर्वोक्त ३४ बंधापसरण होते हैं जिनमें ४६ प्रकृतियोंकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाती है । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव तथा सातवें नरकको छोड़कर शेष छह पृथ्वीके नारकी जीवोंके
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ज.ध. पु. १२ पृ. २९४-२२५ । ध. पु. ६ पृ. १४० ।