Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 12
________________ > स्लर > > गु.|| तं नियमा मुत्तव्बं, जत्तो उपज्जए कसायग्गी; तं वत्थु धारिजा जेणोवसमो कसायाणं ॥११॥ अर्थः-जेनाथी कषायरुप अग्नि प्रदीप्त थाय ते कामने चोकसपणे छोडी देवु भने जेनाथी कपायो दवे ते वस्तु धारण करवी. जइ इच्छह गुरुयत्तं, तिहुयण मज्झमि अप्पणो नियमा; वा सव्वपयत्तेणं, परदोसविवजणं कुणह ॥ १२॥ . अर्थः-जो तमे त्रण जगतनी अंदर पोतानी मोटाइ मेळववा खरेखर इच्छता हो तो सर्व प्रयत्नथी पराया दोषोनी | निंदा करवानुं पूरती रीते वर्जन करो ॥ १२॥ चउहा पसंसणिज्जा, पुरिसा सव्वुत्तमुत्तमा लोए;। उत्तम उत्तम उत्तम, मज्झिमं भावाय सव्वेसि ॥१३॥ __अर्थः-आ जगतमा चार प्रकारना पुरुष सर्वेने प्रशंसा करवा योग्य छे;-एक सर्वोत्तमोत्तम, बीजा उत्तमोत्तम, | जे अहम अहम अहमा, गुरूकम्मा धम्मवजिया पुरिसा; ते विय न निंदणिज्जा, किंतु दया तेसु कायव्वा ॥१४॥ > |त्रीजा उत्तम, अने चोथा मध्यम ॥ १३ ॥

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