Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai
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अमर-
२-RHGREE
. अर्थः--तीव्र तप मंत्रना प्रभावथी हरिकेशबळ ऋषिनी पेठे (उत्तम) कुळ अने जातिहीन होय तोपण तेमनी देवताओ पण सेवा उठावे छे. ॥ ८॥ पडसय मेग पडेणं, एगेण घडेण घडसहस्साई; जं किर कुणंति मुणिणो, तव कप्पतरुस्स तं खु फलं॥९॥ है|
अर्थः-मुनिजनो जे एक पट (वस्त्र) वडे सेंकडो पट खो बारे छे अने एक घट-भाजनवडे हजारो घट--भाजनों | करे छे ते निश्च सपरुष कल्पवृक्षमुंज फळ छे. ॥ ९॥ ..
अनिआणस्स विहिए, तवस्स तविअस्स किं पसंसामो; किज्जइ जेण विणासो, निकाईयाणं पि कम्माणं ॥१०॥ अर्थः जेनावडे निकाचित कमेनिो पण ध्वंस करी शकाय छे एवा यथाविध नियाणा रहित करेला तपनी अमे वेटली मशंसा करीए? |
अईदुक्कर तवकारी, जगगुरुणा कन्हपुच्छिएण तदा; वाहरिओ सो महप्पा, समरिजओ ढंढणकुमारो॥११॥
अर्थः- अढार हजार मुनिश्रोमा अति दुष्कर तप करनार कया साधु छ ? एम कृष्णे एकदा पूछये छत्ते नेमि- | पइदिवसंसत्तजणे,हणिऊण वहिऊण]गहियवीरजिणदिस्खा ।
जे महाशय ने वखाण्या ते ढंढणमुनि (सदाय) स्मरणीय छे. ॥११॥

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