Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

View full book text
Previous | Next

Page 74
________________ ३३ अर्थः- विनयवंत सौम्य प्रणामीने बुद्धि भजे, क्रोधी अने कुशीळियाने अपकीर्ति भजे, भग्न चित्तवाळाने अक्षमी भजे, सत्यम स्थित थलाने लक्ष्मी भजे ॥ ५ ॥ चयंति मित्ताणि नरं कयग्धं, चयंति पावाई मुणिं जयंतं; चयंति सुक्काणि सराणि हंसा, चएइ बुद्धि कुवियं मणुस्सं । ६ अर्थः- कृतघ्न पुरुषने मित्रो तजे छे, यत्नावंत मुनिने पापो तजे छे, सुकाइ गएका सरोक्रोने हंस पक्षी भी तजे छे, कोपवंत मनुष्यने बुद्धि तजे छे. ॥ ६ ॥ अरोई अत्थं कहीए विलावो, असंपहारे कहीए विलावो; विख्खित्त चित्तो कहीए विलावो, बहु कुसीसे कहीए विलावो ७ अर्थ:- अरुचीबाळाने अर्थनी बात कहेवी, ते विलाप तुल्य जाणवी. अनिश्चित अर्थ कहेबो, ते विलाप तुल्य जामो. व्याक्षिप्त चित्तवाळाने जे कहेतुं ते विकाप तुल्य जाणवुं कुशिष्यमे घणुं कहेतुं ते विलाप तुल्य जाणवुं ॥ ७ ॥ दुहिवा दंड परा हवंति, विज्जाहरा मंत परा हवंति; मुख्खा नरा को परा हवंति, सुसाहुणो तत्त परा हवंति ॥ ८ अर्थ:-दुष्ट राजाओ दंडवामां तत्पर होय छे. विद्याघरी मंत्र साधवानां तत्पर होत्र छे. सूर्ख पुरुषो कोष करवा तत्पर होय . उतम साधुओ नत्र अर्थात् परमार्थनां तत्वर होय . ॥ ८ ॥ ३३

Loading...

Page Navigation
1 ... 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112