Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 79
________________ अर्थ:-आस्म समावड़े रमणीय अने मरेंद्रोवडे नमनीय एवा जिनेंद्रोने प्रणाम करी भवदुःखनो मलय करना आ मात्यावघोष ( अनुभव ) कुलक कही ॥२॥ अत्तावगमो नज्जई सयमेव गुणेहिं किं बहु भणसि; सूरुदओ लखिज्जई पहाइ न उ सवहनिवहेणं ॥२॥ अर्थ:-जेम र्यउदय सूर्यनी प्रभाथी जणाय रे, प्रमा सिवाय सोगन लागथी पण ते जणानो नयी, तेम बारमबोभ आप गुणोवडेज पोतानी मेळे जगाइ आवे छे. परंतु आत्मगुण विना संख्याबंध सोगन खाचायो आत्मबोध यवो नयी पाटे वधारे शा माटे चोछे छे ?" दम सम समत्त मित्ती संवेअ विवेअ तिव निब्बेआ: | एए पगूढअप्पा-वबोहबीअस्स अंकुरा ॥३॥ अर्थः-इंद्रिय दमन, मनोविकार शमन, सम्यकत्व, मैत्री, संवेग, अने तीव्र निर्वेद ए सर्वे आत्मयोधरुपी बीजना अंकुराछे.॥३॥ । जो जाणइ अप्पाणं, अप्पाणं सो सुहाणं नहु कामी; पत्तम्मि कप्परक्खे, रुख्खे किं पथ्थणा असणे ॥४॥ ___ अर्थ:-जे आत्माने जाणे , तेओ ( संयोग वियोग धर्मवाळा संसारना ) अल्प सुखोना कापी नथी होता. जेने कल्पवृक्ष प्राप्त थयु होय ते असन वृक्षनी प्रार्थना करे. ॥ ४ ॥ ॐॐREE

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