Book Title: Kulak Sangraha
Author(s): Balabhai Kakalbhai
Publisher: Balabhai Kakalbhai

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Page 90
________________ आ. ४१ अर्थ:- आत्माने बोध कर्यावगर केटलाक बीजाने विशेष बोध करवा जाय छे, तेओ पण खरेखरा जड (मूर्ख) छे. एक बाजु पोतानो परिवार भूख्यो छे, छतां तेओने दानशाळा मांडवानुं भुं प्रयोजन के ते तूं कहे ? ॥ ३८ ॥ बोहंति परं किंवा मुणंति कालं खरा ( नरा) पठंति सुअं; ठाण मुअंति सयावि हु विणाय बोहं पुण न सिद्धी ॥ ३९ ॥ अर्थ:- बीजाने बोध आपे छे, ज्योतिष वगेरेथी काळनुं स्वरुप जाणे छे, सुत्र जाणे छे, वळी सदा पोतानुं स्थान ( घरवार, देश) छोटे छे, छतां तेओने आत्मज्ञान न होवाथी सिद्धि तो नथीज. ॥ ३९ ॥ अवरो न निंदिअवो पसंसिअवो कया वि न हु अप्पा; समभाव काय बोहस्स रहस्समिणमेव ॥ ४० ॥ अर्थ:- परनी निंदा न करवी. कोइ वखते पण पोतानी प्रशंसा न करवी अने समभाव राखवो. आज (आत्म) बोधनुं रहस्य छे. ४० परसक्खित्तं भंजसु रंजसु अप्पाण मप्पणा चेव; वज्जसु वि (विह) कहाओ जइ इच्छसि अप्पविन्नाणं ॥ ४१ ॥ अर्थ:- जोतने आत्मविज्ञाननी ( आत्माना अनुभवनी ) इच्छा होय तो बीजाना साक्षीपणाने छोडी दे, आत्माने आत्मा वडे राजी कर, विकथा मूकी दे. ॥ ४१ ॥ तं भणसु गणसु वायसुझायसु उवइससु आयरेसु जिआ; कु. ४१

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